Wednesday, October 17, 2012

वैज्ञानिकों ने खोजा 4 सूर्यो वाला ग्रह

शौकिया खगोल प्रेमियों की एक टीम ने एक नया ग्रह खोजा है जो आकार में पृथ्वी से 6 गुना बड़ा है और इसके चारों ओर 4 सूर्य चक्कर काट रहे हैं। यह अपने आप में एक अजूबा है । पृथ्वी की कक्षा से पांच हजार प्रकाश वर्ष दूर स्थित इस ग्रह के चारों ओर इसके दो सूर्य चक्कर लगा रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर यह खुद अपने दो सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा रहा है। इस ग्रह व इसके चारों सूर्य को केआईसी 4862625 नाम दिया गया है । दो अमेरिकी खगोलशात्रियों ने प्लैनेट हंटर्स परियोजना के तहत येल यूनिवर्सिटी की टीम की अगुवाई में इस ग्रह को खोजा है। पीएच 1 नामक यह ग्रह एक विशाल गैस का गोला है जो नेप्च्यून से थोड़ा सा बड़ा और धरती के आकार से 6.2 गुना बड़ा है। यह ग्रह अपने दो सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने में 138 दिन का समय लेता है जिनमें से एक पृथ्वी के सूर्य से आकार से 1.5 गुना और दूसरा 0.41 गुना बड़ा है। ये दोनों सूर्य एक दूसरे का चक्कर 20 दिन में पूरा करते हैं। डेली मेल में छपी रिपोर्ट में बताया गया है कि दो अन्य सूर्यो और इस ग्रह के बीच की दूरी धरती तथा सूरज के बीच की दूरी से करीब एक हजार गुना अधिक है। बताया गया है कि पीएच 1 नामक इस ग्रह का न्यूनतम तापमान 251 डिग्री सेल्सियस तथा अधिकतम तापमान 340 डिग्री सेल्सियस है जो प्राणी जीवन के हिसाब से किसी भी सूरत में बर्दाश्त करने की सीमा से मीलों दूर है। पीएच 1 की खोज प्लैनेट हंटर के सेन फ्रांसिस्को के कियान जेक और एरिजोना के रॉबर्ट गागिलिआनो ने की है। पेशेवर खगोलशात्रियों के एक दल ने पीएच 1 की मौजूदगी की पुष्टि की है।

जीवन-मृत्यु के बीच क्या है?

जिंदगी और मौत के बीच भी क्या कुछ है? यह सवाल जितना हमें उत्सुक करता है उतना ही वक्त-बेवक्त इस पर चर्चाओं का बाजार गर्म रहता है। जिंदगी और मौत के बीच के इसी अनुभव को नियर डेथ एक्सपीरियंस (एनडीई) कहा जाता है। कई जहां इसे भ्रम मानते हैं वहीं अभी तक सैकड़ों लोग अपने साथ ऐसा होने का एक्सपीरियंस कर चुके हैं। ताजातरीन घटना ऐसी है जिसमें दुनिया की नामी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक न्यूरो सर्जन ने इस एक्सपीरियंस की बात कही है। डॉक्टर एबेन अलेक्जेंडर ने अपनी नई किताब प्रूफ ऑफ हेवन में कहा है कि एक खास तरह की बीमारी की वजह से जब वह कोमा में चले गए तो उन्हें नियर डेथ एक्सपीरियंस हुआ। क्या होता है यह एक्सपीरियंस जानते हैं इसके बारे में :- बीच की घड़ी एनडीई यानी जिंदगी और मौत के बीच की वह घड़ी है जिसमें मौत से साक्षात्कार का अनुभव होता है। ऐसा लगता है मानो अपने आप शरीर से अलग होकर आकाश की ओर जा रहे हैं। इस स्थिति में लोग एक सुरंग और चमकीली रोशनी देखने का दावा करते हैं। यह स्थिति जबर्दस्त डर या फिर शांति पैदा करती है और अपने शरीर के धीरे-धीरे विलीन होने का आभास होता है। कब होता है अनुभव अभी तक एनडीई के जितने मामले सामने आए हैं उनमें देखा गया है कि जब किसी शख्स को क्लिनिकली डेड (जब सांस रुक जाए और शरीर में खून का संचार नहीं हो) घोषित कर दिया जाता है तो उसे यह अनुभव होता है। किसके शब्द माना जाता है कि नियर डेथ एक्सपीरियंस नाम अमेरिकी मनोवैज्ञानिक और डॉक्टर रेमंड मूडी ने दिया। उन्होंने मौत के बाद जिंदगी (लाइफ आफ्टर डेथ) और एनडीई पर कई किताबें लिखीं। लाइफ आफ्टर लाइफ उनकी प्रसिद्ध किताब है। सच क्या है और कई चीजों की तरह एनडीई की विश्वसनीयता पर भी सवाल खडे़ होते रहे हैं। लेकिन कई ऐसी चीजें हैं जो सोचने को मजबूर करती हैं। मसलन, सभी लोगों को एक ही तरह का एक्सपीरियंस क्यों होता है? कुछ अंधे लोगों ने भी बतौर विजुअल ऐसा देखने की बात कही है, इसका क्या? चर्चित उदाहरण अमेरिकी सिंगर और सॉन्गराइटर पाम रेनॉल्ड्स लॉरी ने 35 साल की उम्र में 1991 में एनडीई के अनुभव की बात कही। उस वक्त उनके दिमाग का ऑपरेशन हो रहा था। 1990 में ऑस्ट्रेलियाई मीडिया टायकून केरी पैकर को हार्ट अटैक आया और उन्हें छह मिनट के लिए क्लिनिकली डेड घोषित कर दिया गया। बाद में उन्होंने एनडीई की बात बताई। अमेरिकी की प्रसिद्ध पर्यावरणविद्, संगीतकार और गीतकार किकी कार्टर को 1983 में नियर डेथ एक्सपीरियंस हुआ। मां की सलाह पर उन्होंने इस बारे में विस्तार से लिखा। प्रस्तुति: प्रकाश कुमार

Saturday, October 13, 2012

फिल्म रिव्यू: मक्खी

भारतीय सिनेमा में एक नए सुपरहीरो का उदय हुआ है, लेकिन इस बार बॉलीवुड नहीं बल्कि दक्षिण भारतीय सिनेमा ने बाजी मारी है। जी हां, पुर्नजन्म से उपजा सुपरहीरो एक मक्खी है, जिसे मारना या मसलना आसान नहीं है। 30 करोड़ में बनी इस फिल्म ने दक्षिण में 125 करोड़ रु. का कारोबार किया है। फिल्म की कहानी एक दिलफेंक व्यवसायी सुदीप (सुदीप) पर आधारित है, जो हर महिला को अपना बनाना चाहता है। एक दिन उसकी नजर बिंदु (सामन्था) पर पड़ती है। जॉनी (नानी) नामक एक लड़का बिंदु से प्यार करता है। ये बात जब सुदीप को पता चलती है तो वह जॉनी को मार देता है। जॉनी एक मक्खी के रूप में पुर्नजन्म लेता है। वह सुदीप से बदला लेना चाहता है। किसी तरह से जॉनी बिंदु से भी संपर्क कर लेता है। जब बिंदु को सारी असलियत पता चलती है तो वह जॉनी के साथ मिलकर बदला लेने की योजना बनाती है। सुनने में यह कहानी, जितनी रोचक लगती है देखने में उससे भी ज्यादा मजा आता है। 70 एमएम पर एक मक्खी को इंसानों से भी बड़ा दिखाने के लिए ‘फोटो रियलिस्टक एनिमेशन’ का सहारा लिया गया है। यही विशेष प्रभाव इस फिल्म की खासियत नहीं है। एक मक्खी कैसे एक इंसान को परेशान कर सकती है और एक इंसान उससे बचने के लिए कैसे-कैसे उपाय करता है ये बातें फिल्म को रोचक बनाती हैं। रूमानी गीत-संगीत फिल्म का एक अन्य उज्ज्वल पहलू है। फिल्म अपने पहले दृश्य से ही बांधे रखती है। सुदीप का एक पूरे इंसान के तौर पर आतंक पूरी फिल्म में छाया रहता है। सामन्था की सौम्यता उत्तर भारतीय दर्शकों को अपनी ओर खींचती है। तो उधर, जॉनी का किरदार करने वाले अभिनेता नानी ने भी काफी अच्छा काम किया है। यही किरदार जब मक्खी के रूप में पुर्नजन्म लेता है तो लगता ही नहीं कि उसकी मौत हो चुकी है। फिल्म को रोचक बनाने के लिए एक मक्खी की कमांडो जैसा प्रशिक्षण देते भी दिखाया गया है। रसायनों से बचने के लिए मक्खी का मास्क पहनना और सुई को तलवार की तरह इस्तेमाल करना फिल्म में जान डाल देता है। ‘मक्खी’, मारधाड़, हंसी-मजाक, भावनात्मक दृश्यों, विशेष प्रभाव और बेहतरीन फिल्मांकन का एक खास तोहफा है, जिसे बच्चों के साथ मजे से देखा जा सकता है। चूकिए मत, जरूर देखिये। कलाकार: सुदीप, सामन्था, नानी निर्देशक: एस एस राजामोउली

जीवन-मधुशाला

छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला, आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला', स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी, बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६। क्या पीना, निर्द्वन्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला, क्या जीना, निरंिचत न जब तक साथ रहे साकीबाला, खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे, मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला।।६७। मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला! मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला! इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ, सिंधँु-तृषा दी किसने रचकर बिंदु-बराबर मधुशाला।।६८। क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला, क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला, थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को, प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९। लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला, लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला, लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का, लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०। कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला, दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला, मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी, जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१। ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला, गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला, साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा, दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२। क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला, भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला, मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला, काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३। प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला, नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला, जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से, जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४

भूख का अंधेर

हम कह सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की दूसरी तेजी से विकास करती हुई अर्थव्यवस्था है और हम आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर हैं। मगर सच्चई यह भी है कि भारत दुनिया के भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) में 79 देशों की सूची में 67वें नंबर पर है। हंगर इंडेक्स यह बताता है कि अपने नागरिकों को भरपेट भोजन और पोषण मुहैया कराने के मामले में किस देश का क्या रिकॉर्ड है। इस वर्ष के हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति ‘गंभीर’ देशों के बीच आती है। बाकी ‘गंभीर’ स्थिति वाले देश इथियोपिया और नाइजर वगैरह हैं, लेकिन ये भी हमसे बेहतर स्थिति में हैं। हमारे पड़ोसी नेपाल और बांग्लादेश भी ‘गंभीर’ देशों की सूची में हैं, लेकिन वे भी हमसे आगे हैं। पाकिस्तान और श्रीलंका तो बहुत बेहतर हैं। चीन उन देशों में है, जिनमें भूख कोई समस्या नहीं है। पाकिस्तान और नेपाल लगातार आंतरिक अशांति और अस्थिरता से जूझ रहे हैं तथा श्रीलंका में दशकों पुराना जातीय युद्ध अभी-अभी खत्म हुआ है। इसके बावजूद वे भारत से बेहतर हैं, जहां न जाने कब से गरीबी और भूख मिटाने के कार्यक्रमों पर अरबों रुपये खर्च किए जाते रहे हैं। एक और तथ्य महत्वपूर्ण है कि 1995-96 के बाद भारत में भूख और कुपोषण की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया। 1990 में भारत ‘अति गंभीर’ देशों की सूची में था। अगले पांच साल में तेजी से स्थिति बदली और हमारा सूचकांक 30.3 से सुधरकर लगभग 25 तक आ गया, लेकिन उसके बाद से यह सूचकांक यहीं ठहरा हुआ है, जबकि इस दौरान भारत की प्रति-व्यक्ति आय लगभग दोगुनी हो गई। इसका मतलब यह है प्रति-व्यक्ति आय के बढ़ने और आर्थिक विकास का कोई फायदा भूखों, गरीब लोगों और कुपोषित बच्चे तक नहीं पहुंचा है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स हर साल इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीटय़ूट द्वारा तैयार और जारी किया जाता है। इस हंगर इंडेक्स में कुपोषित आबादी, पांच साल से कम उम्र के कुपोषित बच्चों और बाल मृत्यु दर को भी शामिल किया जाता है। इस साल के इंडेक्स से पता चलता है कि दक्षिण एशिया में खाद्य और पोषण की स्थिति में ठहराव आ गया है। लगभग सभी देशों में कोई खास बेहतरी देखने को नहीं मिली। भारत में तो स्थिति कुछ खराब ही हुई है। अफ्रीका के देश अब भी ‘गंभीर’ और ‘अति गंभीर’ सूची में हैं, लेकिन उनकी स्थिति में तेजी से सुधार हो रहा है। इसकी वजहें हैं- कई पुराने युद्धों का खत्म होना, एड्स पर नियंत्रण और पोषण कार्यक्रमों की सफलता। भारत की स्थिति इस मायने में विशिष्ट है कि यहां राजनीतिक स्थिरता है, तेज आर्थिक विकास है, खाद्यान्न की कमी भी नहीं है। लेकिन पोषण व मानव विकास की कसौटियों पर हम अति गरीब देशों से भी पीछे हैं। हर साल गोदामों के भरे रहने और अनाज के सड़ने की खबरें आती हैं, लेकिन हम इस अनाज को भूखों के मुंह तक ले जाने का तरीका नहीं ढूंढ़ पाए। यह बार-बार कहा जाता है कि स्वास्थ्य पर हमसे कम खर्च करने के बावजूद बांग्लादेश और श्रीलंका स्वास्थ्य और मानव विकास के पैमानों पर हमसे कहीं बेहतर हैं। इसकी वजह ढूंढ़ी जानी चाहिए। गरीबों के लिए इस वक्त देश में जितनी बड़ी योजनाएं चलाई जा रही हैं और जितना पैसा खर्च किया जा रहा है, उतना शायद ही किसी और देश में कभी हुआ हो। यह भी सच है कि योजनाओं के आकार-प्रकार और खर्च के मुकाबले जितना कम फायदा भारत में हुआ है, उतना शायद ही कहीं हुआ हो। हमारे देश में न अनाज की कमी है, न साधनों की, फिर किस बात की कमी है, यह राजनेताओं और प्रशासकों को अपने आप से पूछना चाहिए। हिन्दुस्तान से

Saturday, May 12, 2012

Monday, April 25, 2011

माँ

लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती।
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।
मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।
अभी ज़िंदा है माँ मे...री, मुझे कुछ भी नहीं होगा, मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है, माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।
ऐ अंधेरे,देख ले मुंह तेरा काला हो गया, माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया।
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।
मुनव्वर‘ माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती।
(मुनव्वर राणा

Thursday, January 13, 2011

जाड़े में नहाने के तरीके

कहा जाता है कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है। सच ही है क्योंकि लोग अपनी-अपनी आवश्यकता के हिसाब से आविष्कार कर ही लेते हैं। इधर जाड़ा क्या बढ़ा कि लोग नहाने के नए नए तरीके अविष्कार कर लिए। बहुतों ने तो स्नान करना ही छोड़ दिया। कुछ लोग सिर्फ सिर भिगोकर लोगों को भ्रमित करने लगे। कुछ लोग भीगे कपड़े से शरीर पोंछकर काम चलाने लगे। कुछ लोग बाथरूम में जाकर लोटे या मग से पानी इस कदर फेंकना शुरू कर देते हैं कि बाहर से तो लगता है कि अंदर कोई नहा रहा है। लेकिन कई बाल्टी पानी बहा देने के बाद भी शरीर उसी तरह अनभीगी बनी रहती है जैसे पानी में कमल। लेकिन कमल पानी में डूबने के बाद भी अनभीगा दीखता है और यहाँ सिर्फ लोटा ही डूबता है। खैर कपड़ा बदलकर व कपड़ा भिगोकर निकल आये तो स्नान हो ही गया।

इसी तरह से कई लोग शावर तो बड़ी तेजी से खोल देते हैं लेकिन खुद कोने में दुबक जाते हैं। जब दो-चार बाल्टी पानी बह जाता है तो नहा लेने की अनुभूति होने लगती है। और तब बाहर निकल पड़ते हैं। कौन समझाये कि भारत में ही नहीं विश्व में पानी का गम्भीर संकट आने की सम्भावना है। लेकिन आविष्कार भी तो जरूरी है। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता ही है। दिखावे में मान भले ही मिले लेकिन हानि तो होती ही है। अनुभवी बताते हैं कि दिखावे में तो कई लोगों को इतना खोना पड़ता है कि कर्ज चढ़ जाता है। कर्ज भी मर्ज की तरह होता है। इलाज न होने पर बढ़ता ही जाता है। लेकिन नहाने से मतलब पानी बहाने से कर्ज थोड़े चढ़ेगा। इसलिए चाहे दिखावे के लिए नहाएं और चाहे दिखा-दिखा के। कई जगहों पर लोग दिखा-दिखा कर भी नहाते हैं।

कुछ लोग तो हिम्मत करके पानी ऊपर डाल भी लेते हैं। लेकिन कहीं भीगता है और कहीं सूखा ही रह जाता है। जैसे बरसात में होता है। कहीं-कहीं तो बाढ़ आ जाती है और कहीं सूखा पड़ जाता है। जैसे प्रजातंत्र में अमीरी और गरीबी। खैर किसी कपड़े से पोंछने पर सूखा स्थान भी गीला हो ही जाता है। पहना हुआ कपड़ा स्नान करते समय ही भीगे। यह जरूरी नहीं है। उसे तो बाद में धोना ही रहता है। स्नान के समय नहीं भीगेगा तो धोते समय तो भीगेगा ही। भीगना ही उसकी नियति जो है। जैसे गरीब खुद रोए चाहे कोई रुलाये तब।

जाड़े में कुछ लोग नहाने के साथ कपड़े धोना भी कम कर देते हैं। कहते हैं कि ठंडी में सब चलता है। क्या मैला क्या सफा। अंदर कौन झांकने जाता है। जरा सोचिए अंदर की मैल, मैल नहीं है। बाहर की मैल, मैल है। कौन समझाये कि अंदर की मैल बाहर की मैल से ज्यादा खतरनाक होती है। रही बात अंदर झांकने की तो दूसरे के अंदर झांकने के लिए तो लोग मौका ताड़ते ही रहते हैं। अपने अंदर कौन झांकता है ? जबकि अंदर झांकने से कई समस्याएं खत्म हो सकती हैं। संत-महात्मा भी ऐसी सलाह देते हैं। लेकिन दूसरे की सब देख लेते हैं और अपनी किसी को नहीं दिखती ।

ऐसा ही सोचने और करने से जाड़े में किसी-किसी के चीलर पड़ने की सम्भावना प्रबल हो जाती है। पड़ भी जाते होंगे। कौन देखने जाता है ?

एक महाशय से किसी ने कहा कि आज आपने स्नान नहीं किया है। वे बोले किया तो है। वह आदमी बोला लगता तो नहीं है। तब महाशय ने एक राज की बात बताई। बोले स्नान किया तो है लेकिन कंकड़ी स्नान किया है। पूछने पर इन्होंने बताया कि कही चार-पाँच कंकड़ लाकर रख दो। और उसी पे जितना नहाना हो उतना बाल्टी पानी डाल दो। इसके बाद अपने ऊपर पानी का हल्का सा छीटा मार कर कपड़े बदल लो। यही कंकड़ी स्नान कहलाता है और आजकल इसका बहुत चलन है।

स्नान करना तो दूर कुछ लोगों ने तो इस जाड़े में हाथ और मुहँ तक धोना छोड़ दिया है। वहीं कुछ लोगों ने एलान कर दिया है कि शरीर में कुछ लगा थोडे ही रहता है। हाथ-मुँह धो लो समझो स्नान हो गया। इस सिद्धांत से तो जल संकट रोकने में काफी सहायता मिलेगी। लेकिन कंकड़ी स्नान वाले तथा पानी शरीर के बजाय पीछे फेकने वाले भी इसका पालन करें तब तो। आज सबका अपना-अपना सिद्धांत होता है। तब दूसरे पर कौन बिचार करे। गलत-सही से भी मतलब नहीं बस अपना हो। अपना आगे और पराया भागे। इसी का चलन है। इसे आज के शासक-प्रशासक भी अमल में लाते हैं। जो नहीं लाना चाहते, दूसरे को अमल में लाते देख उन्हें भी अमल लगती है।

कुछ लोगों ने पानी पीना भी कम कर दिया है। कुछ लोग तो खाने के बाद पोंछना ही सही मानते हैं। बार-बार हाथ धोने को पानी की बर्बादी कहते हैं। बर्बादी रुके तो सही। कारण कुछ भी हो। कुछ लोग तो सुबह भी पोंछने वाली बिदेशी तकनीक को उचित ठहराने लगे हैं। भले ही भारतीय परम्परा में पले-बढ़े होने से हिम्मत न जुटा पाएँ।

कहाँ तक और क्या–क्या बताएं कुछ लोग तो दार्शनिक हो गए हैं। कहते हैं सब माया है। न कोई अपना है और न पराया है। यह जो काया है यह भी अपनी नहीं है। तो क्या फायदा है इसे मल-मल धोने में ? नहाना मूर्खता है। कबीर दास जी ने स्वयं कहा है कि-

“क्या जानै काया संग चलेगी, काहे को मल मल धोई”।

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एस के पाण्डेय,

समशापुर (उ. प्र.)।