Friday, November 20, 2009

माँ

माँ केवल माँ नही होती
वह होती है शिक्षक
रोटी बेलते बेलते केवल अक्षर और अंक ही नही
और भी बहुत कुछ पढाती है
यह करो वह नही, कहते कहते संस्कारित करती है
दंड भी देती है कई बार कठोर
हमारी हर गतिविधि पर होती है उसकी पैनी नजर
और हमारी सुरक्षा सर्वोपरि
माँ केवल माँ नही होती
वह होती है रक्षक
सिखाती है इस दुनिया में रहने और जीने के तरीके
दुनिया में हमेशा धोका समझ कर चलो
भरोसा मत करो जाने पहचाने का भी,
अनजान का तो बिलकुल भी नही
य़हाँ वहाँ अकेले बिना जरूरत न जाना
कितनी बुरी लगती थी तब उसकी यह टोका टाकी
अब पता चलता है कितनी सही थी माँ
माँ केवल माँ नही होती
वह होती है परीक्षक
उसकी सिखाई बातों को हमने कितना आत्मसात किया
यह जाने बिना उसे चैन कहाँ
हलवा बनाओ, बर्तन चमकाओ
सवाल करो,जवाब तलाशो, कविता सुनाओ
हजार चीजें ।
माँ होती है परिचारिका भी
और कभी कभी डॉक्टर
बुखार में कभी भी आँख खुले माँ हमेशा सिरहाने
माथे पर पट्टियाँ रखते हुए
छोटे मोटे बुखार, सर्दी जुकाम तो वह
अपने अद्रक वाली बर्फी या काढे से ही ठीक कर देती
तब माँ कितनी अच्छी लगती
आज जब सिर्फ उसकी याद ही बाकी है
उसकी महत्ता समझ आ रही है ।
तुम सुन रही हो न माँ ?

माँ से साभार

मैं और मेरी क़िताबें अक‍सर ये बातें करते हैं

मैं और मेरी किताबें अकसर ये बातें करते हैं- किसी की ज़ुबान से जब ये बात निकली हो, तो यकीनन बहुत गहरा अर्थ रहा होगा इसके पीछे| वो कोई भी बात 'यूं ही' तो नहीं कह देता|
और इसका अर्थ तब ज़ाहिर होना शुरु हुआ जब उससे किताबें सुनना शुरु की| जीवन में किताबें तो बहुत पढ़ी हैं, जिनको पढ़ने के बाद भी ज़हन में खयाल रह जाता था कि पता नहीं ठीक से पढ़ी या नहीं| क्योंकि कई बार हम उस जगह नहीं पहुंच पाते जहां पहुंचकर लेखक ने लिखा होता है| लेकिन किताब को यदि उसके लेखक की ज़ुबान से सुनने को मिलें तो लगता है किताब को पढ़ा नहीं जिया है|

और उसकी ज़ुबान से किसी किताब को सुनने के मायने यही है कि उसके लेखक द्वारा सुनी जा रही है| फिर चाहे वह अमृता की 'तेरहवां सूरज' हो, चाहे दुष्यंत कुमार की काव्य नाटिका 'एक कंठ विषपायी' हो या फिर बब्बा (ओशो) के कहे हुए वचन|

अमृता की 'तेरहवां सूरज' और 'उनचास दिन' सुनते हुए तो मैं खुद अमृता हो गई थी| 'तेरहवां सूरज' का दूसरा भाग है 'उनचास दिन' और उसको सुनते हुए खयाल आया था कि अब उसके तीसरे भाग को लिखने का समय आ गया है| ऐसी अनहोनी घटना तभी घट सकती है जब आप के कानों में पड़ने वाली आवाज़ लिखने वाले की ही हो तभी तो आप लेखक में इतने समाहित हो जाते हैं कि उसी की तरह सोचने लगते हैं|

कवि नीरज द्वारा लिखा श्रंगार गीत जब पढ़ा तो लगा, नहीं!!! यह मेरे तरह की कविता नहीं है, मन नहीं लगा उसको पढ़ने में, लेकिन उसी श्रंगार गीत को जब उसके मुंह से सुना तो लगा जैसे कवि नीरज ने वो गीत हमारे लिए ही लिखा है| उसका एक-एक शब्द जैसे हमारी पहली मुलाकात को वर्णित कर रहा था| कई महिनों से उसे सिर्फ़ एक आवाज़ के रुप में जानती थी, उस व्यक्ति को पहली बार साक्षात रुप में देखना किसी स्वप्न के सच हो जाने जैसा ही था| और उस पहली मुलाकात के लिए किसी कवि ने पहले से ही कोई कविता रच दी हो हमारे लिए, तो कोई अचंभा नहीं है| जो व्यक्ति किताबों से बातें करता हो वे किताबें और किताबों के रचयिता इतना तो कर ही सकते हैं उसके लिए|


और उन अद्भुत क्षणॉं को शब्दों में पिरोना तो और भी मुश्किल है मेरे लिए जब वो बब्बा(ओशो) की किताबों को सुनाता हैं| बब्बा ने कभी कुछ लिखा नहीं सिर्फ़ बोला है| वह राइटर नहीं ओरेटर है| जब किसी लेखक की लिखी हुई बातों को वो उसी अंदाज़ और अर्थों के साथ सुनाता हो तो किसी की कहीं हुई बातों को उन्हीं के अर्थों में समझाने का जादू सिर्फ़ उसी के बस का है| और वो बातें जब बब्बा द्वारा कही गई हो तो लगता है कि उनको सुनने के लिए स्वयं बब्बा भी आए हैं| उसका कारण भी है, जिस कमरे में जिस कुर्सी पर बैठ कर वो बब्बा को पढ़ता है, कई बरस पहले उसी जगह बब्बा भी बैठा करते थे| वह उनकी बैठक हुआ करती थी|


उसकी ज़ुबान से बब्बा बोल रहे हैं या बब्बा उसकी ज़ुबान से बातों को दोहरा रहे हैं या बब्बा खुद वहां आ कर खुद को सुन रहे हैं कोई नहीं जानता, कोई समझ ही नहीं सकता| ये अद्भुत क्षण, पल, समय जो गुज़रता है वो समझने के लिए नहीं अनुभव करने के लिए होता है| बब्बा को पढ़ते समय उसके शरीर के चारों ओर मुझे एक दिव्य प्रकाश दिखाई देता है| मनुष्य के आसपास बनने वाले 'ऑरा' को देखा जा सकता है लेकिन जो ऑरा, जो प्रकाशवान गोला बुद्ध्, महावीर या हमारे देवी देवताओं के सिर के पीछे हम उनके चित्रों में देखते हैं, वह प्रकाशमान दिव्य गोला मुझे उसके सिर के पीछे भी दिखाई देता है|
ब्लॉग "नायिका" से साभार

Saturday, November 14, 2009

एक दिन चुक जाएगी ही बात

बात है:
चुकती रहेगी
एक दिन चुक जाएगी ही—बात
जब चुक चले तब
उस विन्दु पर
जो मैं बचूँ
(मैं बचूँगा ही!)
उस को मैं कहूँ—
इस मोह में अब और कब तक रहूँ?

चुक रहा हूँ मैं।
स्वयं जब चुक चलूँ
तब भी बच रहे जो बात—
(बात ही तो रहेगी!)
उसी को कहूँ:
यह सम्भावना—
यह नियति—कवि की
सहूँ।
उतना भर कहूँ,:
—इतना कर सकूँ
जब तक चुकूँ!

Friday, November 13, 2009

ऐ वक्त न आया कर

जीवन में कुछ पल ऐसे होते हैं, जो जब भी उभरते हैं, अपरिमित कष्ट ही होता है। मन किसी भी कीमत पर नहीं चाहता है कि, गुजरा हुआ वह पल फिर से आँखों में आए। मगर यह सब रोकना अपने बस में होता ही कहाँ है। सामान्य व्यक्ति में इतना सामर्थ ही नहीं होता है कि, वह अपनी भावनाओं और संवेदनाओं पर अपना नियंत्रण कर सके। विचित्र तो यह होता है, जीवन में जिस वक्त को फिर से याद नहीं करना चाहतें हैं, उन्हीं पलों को फिर से जीने का मन भी करता है, इच्छा यही कहती है कि, काश! कि वह समय फिर से लौट आए और हम फिर से उन्हीं को जीए। लेकिन जब यह इच्छा नहीं पूरी होती है या पूरी नहीं हो सकती है, तब उन्हीं लम्हों को, जो कभी बहुत ही प्यारे थे, जो बहुत ही सुहाने थे, उनको याद नहीं करना चाहते हैं। वक्त या परिस्थिति जब उन्हें दोहराने का प्रयत्न करतीं हैं, तो उनको फिर से जीने का मन नहीं करता है। मन यही करता उन लम्हों में, जब बिन चाहे, बिता हुआ लम्हा आँखों में आ आ कर, जीने की इच्छा को तोड़ता है, जीवन की गति को धीमा बनाता है, कि गुजर जाय जो बीत गया है, लेकिन गुजरा हुआ वो वक्त गुजरता ही नहीं, जाने क्यों?

सही ही कहा गया है कि यादों के नियम ही अज़ीब हैं, कल में जिन लम्हों में रोए थे, वो आज में याद आकर हॅसाते हैं, लेकिन कल में जिन लम्हों में हॅसे थे, आज में वही वक्त आ आ कर रूलाया करते हैं। यादों का अज़ीब नियम यह किसने और क्यों बनाया है? भगवान् को क्या सूझा जो ऐसा काम किया है उसने?

कल रह रह कर जब उभरता है आज में आ कर, तब तब मन ने यही कहा है हमसे:-



मुझसे मिलने, ऐ वक्त न आया कर,
फिर से हॅसने, ऐ वक्त न आया कर।

कुछ पल अपने साथ गुजारने है मुझको,
कल को पलटने, ऐ वक्त न आया कर।

कुछ रखा जाए मान मोहब्बत का भी अब,
बात ये कहने, ऐ वक्त न आया कर।

बहुत हूँ तन्हा, लोगों में रह रह कर,
ये साबित करने, ऐ वक्त न आया कर।

मेरा वज़ूद बाकी ही है कितना अब,
हमसे यह सुनने, ऐ वक्त न आया कर।

‘‘उन्मत्त’’ छोड़ दूँ तुमको खुला कैसे,
मुझसे लड़ने, ऐ वक्त न आया कर।
‘‘उन्मत्त’’

पति, पत्नी और किताब

ओमपुरी की पत्नी नंदिता ने अपने पति पर लिखी किताब में उनके बारे में अनेक अभद्र बातें लिखी हैं और उनके शयन कक्ष की अनेक घटनाओं का वर्णन किया है।
यह सब उन्होंने ओमपुरी के साथ रहते हुए, अपने सफल और अमीर पति के रुतबे और रुपयों का लाभ लेते हुए किया। आज ओमपुरी के पैरों से जीवन का आधार ही हट गया है। विगत ३५ वर्षो से फिल्म उद्योग में उनका किसी से कोई प्रेम प्रकरण नहीं हुआ और उनके सदाचार के गुण पूरा उद्योग गाता है।
मुद्दा यह नहीं है कि नंदिता का लिखा सच है या झूठ। मुद्दा यह है कि साथ रहते हुए क्या एक पत्नी द्वारा अपने पति का सार्वजनिक अपमान करना उचित है? प्राय: अलगाव या तलाक के बाद पत्नियां इस तरह की बातें करती हैं। इसके साथ यह मुद्दा भी जुड़ा है कि क्या बतौर एक लेखिका नंदिता के लिए सत्य की तलाश और अभिव्यक्ति से बड़ा कुछ नहीं है? हमारे आख्यानों में कथा है कि एक सच्चे संत ने पीछा करते हुए डाकुओं को छुपे हुए ग्रामीणों का पता बता दिया, क्योंकि सत्य बोलने के लिए वे शपथबद्ध थे, परंतु उन्हें इसी सत्य के लिए मोक्ष से वंचित किया गया, क्योंकि सत्य हमेशा मासूमों की रक्षा या सबके भले के लिए बोला जाता है। संत के ‘सत्य’ के कारण अनेक लोगों के प्राण चले गए। अब नंदिता पुरी का तथाकथित ‘सत्य’ उनके बेटे के जीवन पर क्या प्रभाव डालेगा? ओमपुरी अपने पुत्र से कैसे आंख मिलाएंगे? इस किताब से समाज को क्या लाभ मिलेगा?
यह किताब प्रकाशक और लेखिका को कुछ लाभ दिला सकती है और कुछ लोग इसे चटखारे लेकर पढ़ सकते हैं, परंतु यह सनसनी साहित्य नहीं है। अनेक लेखकों को ‘सत्यवादी’ होने का जुनून होता है और रहस्योद्घाटन का नशा भी होता है। कई वर्ष पूर्व एक ‘सत्यवादी’ पत्रकार ने कमला नामक आदिवासी महिला को, जो चंद रुपयों में बिकी थी, सरेआम प्रस्तुत करके वाहवाही लूटी थी। कमला का बाद में क्या हुआ, आज तक पता नहीं। सनसनी पैदा करने का नशा भी अत्यंत ताकतवर होता है।
ओमपुरी के साथ इन वर्षो के दौरान सैकड़ों लोगों ने काम किया है और उनके बारे में कभी किसी ने बुरा नहीं कहा। हाल ही मैंने ओमपुरी की पहली बड़ी सफलता ‘अर्धसत्य’ के फिल्मकार गोविंद निहलानी से बात की और उन्होंने कहा कि ओम पुरी सदाचारी व्यक्ति हैं।

Wednesday, November 11, 2009

प्यारी हिंदी हमें माफ करना।

मेरी प्यारी हिंदी
क्या कहूं, लेकिन धीमे से ही कहुंगा कि प्लीज किसी से कहना मत कि बहुत से लोग तुम्हे जानते हैं। नहीं तो वो मुंबई नहीं जा पायेंगे। वैसे क्या चल रहा है आजकल, बड़े चर्चे सुन रहा हूं। तुम्हारे चर्चे तो विधानसभा में भी गूंजने लगे हैं। तुम्हारे नाम पर तो जूतम पैजार भी हो रही है। तेरे लाल डटे हुए हैं मोर्चे पर घबराना मत, हम जैसे है तुझे तेरा सम्मान दिलाने के हक में, हम तुझे हमेशा याद करते है। जब भी कलम उठती है तेरी याद आती है। क्या करें, मेरी मां को भी तुमसे बड़ा लगाव था। जब वो कलम चलाना सिखा रही थी तो उसने तेरी पूजा करनी सिखाई। इसलिये तुझे मां ही समझता हूं। चिंता मत करना मेरी कलम जब भी उठेगी तेरे लिये उठेगी, तुझे तेरा दर्जा दिलावाकर रहेगी। मुझे तेरा दर्द पता है, मुझे पता है कि कैसे अंग्रेजी तेरा चीरहरण करती है, तभी तो हिंदी के आराधकों की नसें फड़कने लगती थी। लेकिन शर्म है खुद पर, कैसे कहूं पर अब तो जिस राष्ट्र की तू राष्ट्र भाषा है वहां के दुराचारियों की नज़रें भी तेरे अधखुले बदन को चीड़ फाड़ने के लिये ताड़ रही है। मगर घबरा मत...तेरे उपर जिस राज ठाकरे जैसे दुराचारियों की नज़रें पड़ी है उनके अस्तित्व की पहचान खुद उन्हें भी नहीं हो पायेगी। तुझे राष्ट्रभाषा कहने का छद्दम दर्जा तो दे दिया गया लेकिन क्या तुझे उसके जितनी इज्जत मिल पाई है। ये सवाल मै तुझसे अच्छा जानता हूं। हम तो तेरे आराधक है, हमें तो तुझमें अपना भगवान नज़र आता है। लेकिन कसम है तेरी, जिस जिस की गंदी नजरें तुझ पर उठेंगी उसे उसकी ही नज़रों गिरा देंगे।

लेकिन आदरणीय हिंदी अंत में इतना ही कहुंगा कि हमें शर्म है खुद पर जो तेरे दुश्मनों को तुझमें विश्वास न दिलवा पा रहें हैं। क्या करें जिस देश की तुम राष्ट्रभाषा हो उसी देश के वो नेता हैं। जो यहां के लोगों की ही नुमाइंदगी करते हैं। और इस लोकतंत्र में हम उन पर दबाव नहीं बना सकते हैं। पर शर्म इस बात की है कि वो दूसरों पर दबाव बना लेते है, और उनको तेरे देश का संविधान भी नहीं रोक पाता , जिस देश की तू राष्ट्रभाषा है
हमें माफ करना।

बचपन में बुढ़ा'पा'! अब तक नहीं मिला प्रोजेरिया का तोड़

दुनियाभर के वैज्ञानिक और बाल रोग विशेषज्ञ अत्यंत दुर्लभ बीमारी प्रोजेरिया का तोड़ ढूंढ़ने में लगे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें अब तक सफलता नहीं मिल पाई है।

यह एक ऐसी बीमारी है जिसमें शिशु अपने जीवनचक्र के दौरान बाल्यकाल, किशोरावस्था और युवावस्था के चरणों को पार कर वृद्धावस्था की तरफ अग्रसर होने की बजाय दो-तीन साल की उम्र में ही बुढ़ापे की तरफ बढ़ने लगता है और इस बीमारी की चपेट में आने वाले बच्चों का जीवन चक्र महज 13 से 21 साल की उम्र तक ही पूरा हो पाता है। प्रोजेरिया को हटचिंसन गिलफोर्ड सिंड्रोम भी कहा जाता है।

पहले लोग इस बीमारी से ज्यादा परिचित नहीं थे, लेकिन चार दिसंबर को रिलीज होने जा रही फिल्म पा ने लोगों में इस बीमारी के प्रति जानने की लालसा को बढ़ा दी है। पा में अमिताभ बच्चान ने प्रोजेरिया से पीड़ित बच्चे की भूमिका निभाई है।

यूनिवर्सिटी ऑफ आयोवा चिल्ड्रन्स हॉस्पिटल में क्लिनिकल प्रोफेसर के रूप में कार्यरत जाने माने बाल रोग विशेषज्ञ डॉ रामनिवास शर्मा ने बताया कि वर्तमान आंकड़ों के अनुसार लगभग 40 लाख में से एक बच्चे में यह बीमारी पाई जाती है। उन्होंने कहा कि दुनियाभर के वैज्ञानिक और डॉक्टर इस बीमारी का इलाज ढूंढ़ने की कोशिश में लगे हैं, लेकिन अब तक कोई सफलता नहीं मिल पाई है।

यह बीमारी जीन्स और कोशिकाओं में उत्परिवर्तन की स्थिति के चलते होती है। इस बीमारी से ग्रसित अधिकतर बच्चे 13 साल की उम्र तक ही दम तोड़ देते हैं, जबकि कुछ बच्चे 20-21 साल तक जीते हैं।

रामनिवास ने बताया कि इस बीमारी के लक्षण दो-तीन साल की उम्र में ही उभरने लगते हैं। बच्चों के सिर के बाल उड़ जाते हैं, खोपड़ी का आकार बड़ा हो जाता है और नसें उभर कर त्वचा पर साफ दिखाई देती हैं। उसके शरीर की वृद्धि रुक जाती है। वह वृद्ध और काल्पनिक एलियन (दूसरे ग्रह के प्राणी) जैसा दिखने लगता है। उन्होंने कहा कि अब तक किए गए अनुसंधानों में इसका कोई कारगर इलाज नहीं ढूंढ़ा जा सका है।

रामनिवास ने कहा कि यदि प्रोजेरिया की जड़ पकड़ में आ गई तो न सिर्फ बीमारी का इलाज ढूंढ़ने में मदद मिलेगी, बल्कि इससे मनुष्य के बूढ़े होने की प्रक्रिया के भी कई राज खुलेंगे।

कम वजन के बच्चों को बचाने में अनुसंधान कार्य के लिए अमेरिका में पुरस्कृत किए जा चुके तथा ब्रिटेन के रॉयल कॉलेज ऑफ फिजीशियन के सदस्य डॉ रामनिवास ने बताया कि प्रोजेरिया का सबसे पहले उल्लेख 1886 में जोनाथन हटचिंसन ने किया था। बाद में 1897 में हेस्टिंग्स गिलफोर्ड ने भी इसका उल्लेख किया। इसलिए इस बीमारी को हटचिंसन गिलफोर्ड सिंड्रोम भी कहा जाता है।

वर्तमान में विश्व में प्रोजेरिया के 35-45 मामले हैं। भारत के मध्य प्रदेश में भी एक बच्चे को इस बीमारी से पीड़ित बताया जाता है।

नहीं रहे कागद मसि के मसीहा !

अपनी कलम का जादू बिखेरने की तैयारी में लगे प्रभाष जोशी की आंखे जैसे सचिन के बल्ले से निकले एक-एक शॉट को जेहन में उतार लेना चाहती थी। हैदराबाद में सचिन जब अपने पुराने अंदाज़ में खेलते नज़र आ रहे थे तो पत्रकारिता के उस शीर्ष के हर पाठक को शायद सुबह का इंतज़ार था। क्योंकि जब जब तेंदुलकर का बल्ला चला है तब तब प्रभाष जोशी की कलम चली है।
पांच तारीख की रात जब सचिन चौव्वे पे चौव्वे लगा रहे थे तो अनायास ही उनका ख़याल आ गया। साथ मैच देखते मित्र से अपने मन की बात को साझा करते हुए कहा कि कल के जनसत्ता में प्रभाष जी की जादुई पारी देखने को मिलेगी। लेकिन वक़्त को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। हमें क्या पता था कि दादाजी के कागद मसि तो दूर अब हम कभी दादाजी को भी नहीं देख सकेंगे।
पत्रकारिता के कुबेर का इस दुनिया से जाना एक युग का अंत है। उन्होंने पांच तारीख की रात को अपनी अंतिम सांसें ली। अगली सुबह उनके शव को दर्शनार्थ गांधी प्रतिष्ठान लाया गया। ऐसा लग रहा था जैसे यहां के पेड़-पौधे और दीवारें भी नम आंखों से इस युग पुरूष को श्रद्धांजलि दे रही हों। उनके अंतिम दर्शन के लिए वे सभी पत्रकार वहां मौजूद थे जो उनसे पत्रकारिता सीखते हुए आगे बढ़े।
इंडियन एक्सप्रैस के संपादक शेखर गुप्ता की आंखें यह कहते हुए नम हो उठी कि वह उनके पिता तुल्य थे। उन्होंने कहा उनका जाना पत्रकारिता के लिए एक बड़ी क्षति है। यह पूछने पर कि उनके बाद कौन ऐसा दिखाई देता है जो उस मशाल का हरकारा बन सके जो उन्होंने जलाई थी, शेखर ने कहा कि अभी ऐसा कोई दिखाई नहीं देता।
दादाजी ने अपनी पत्रकारिता के ज़रिए दिल्ली में मालवा की संस्कृति को स्थापित किया। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता में एक नया मुहावरा गढ़ा और उसे एक नए मुकाम पर पहुंचाया। वह अकेले ऐसे पत्रकार थे जो आज की पत्रकारिता पर लगातार सवाल उठाते रहे थे और आने वाली पीढ़ी के पत्रकारों में एक नई उर्जा का संचार करते थे।
दादाजी ज़िंदगी की पिच पर कलम की बल्लेबाजी करते हुए इस दुनिया को अलविदा कह गए। 72 की उम्र में भी वह खुद को सक्रिय रखते थे। कागद मसि के उस मसीहा के जाने के बाद कौन है जो कागद कारे करेगा और पत्रकारिता के मूल्यों की बात करेगा।