Thursday, January 13, 2011

जाड़े में नहाने के तरीके

कहा जाता है कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है। सच ही है क्योंकि लोग अपनी-अपनी आवश्यकता के हिसाब से आविष्कार कर ही लेते हैं। इधर जाड़ा क्या बढ़ा कि लोग नहाने के नए नए तरीके अविष्कार कर लिए। बहुतों ने तो स्नान करना ही छोड़ दिया। कुछ लोग सिर्फ सिर भिगोकर लोगों को भ्रमित करने लगे। कुछ लोग भीगे कपड़े से शरीर पोंछकर काम चलाने लगे। कुछ लोग बाथरूम में जाकर लोटे या मग से पानी इस कदर फेंकना शुरू कर देते हैं कि बाहर से तो लगता है कि अंदर कोई नहा रहा है। लेकिन कई बाल्टी पानी बहा देने के बाद भी शरीर उसी तरह अनभीगी बनी रहती है जैसे पानी में कमल। लेकिन कमल पानी में डूबने के बाद भी अनभीगा दीखता है और यहाँ सिर्फ लोटा ही डूबता है। खैर कपड़ा बदलकर व कपड़ा भिगोकर निकल आये तो स्नान हो ही गया।

इसी तरह से कई लोग शावर तो बड़ी तेजी से खोल देते हैं लेकिन खुद कोने में दुबक जाते हैं। जब दो-चार बाल्टी पानी बह जाता है तो नहा लेने की अनुभूति होने लगती है। और तब बाहर निकल पड़ते हैं। कौन समझाये कि भारत में ही नहीं विश्व में पानी का गम्भीर संकट आने की सम्भावना है। लेकिन आविष्कार भी तो जरूरी है। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता ही है। दिखावे में मान भले ही मिले लेकिन हानि तो होती ही है। अनुभवी बताते हैं कि दिखावे में तो कई लोगों को इतना खोना पड़ता है कि कर्ज चढ़ जाता है। कर्ज भी मर्ज की तरह होता है। इलाज न होने पर बढ़ता ही जाता है। लेकिन नहाने से मतलब पानी बहाने से कर्ज थोड़े चढ़ेगा। इसलिए चाहे दिखावे के लिए नहाएं और चाहे दिखा-दिखा के। कई जगहों पर लोग दिखा-दिखा कर भी नहाते हैं।

कुछ लोग तो हिम्मत करके पानी ऊपर डाल भी लेते हैं। लेकिन कहीं भीगता है और कहीं सूखा ही रह जाता है। जैसे बरसात में होता है। कहीं-कहीं तो बाढ़ आ जाती है और कहीं सूखा पड़ जाता है। जैसे प्रजातंत्र में अमीरी और गरीबी। खैर किसी कपड़े से पोंछने पर सूखा स्थान भी गीला हो ही जाता है। पहना हुआ कपड़ा स्नान करते समय ही भीगे। यह जरूरी नहीं है। उसे तो बाद में धोना ही रहता है। स्नान के समय नहीं भीगेगा तो धोते समय तो भीगेगा ही। भीगना ही उसकी नियति जो है। जैसे गरीब खुद रोए चाहे कोई रुलाये तब।

जाड़े में कुछ लोग नहाने के साथ कपड़े धोना भी कम कर देते हैं। कहते हैं कि ठंडी में सब चलता है। क्या मैला क्या सफा। अंदर कौन झांकने जाता है। जरा सोचिए अंदर की मैल, मैल नहीं है। बाहर की मैल, मैल है। कौन समझाये कि अंदर की मैल बाहर की मैल से ज्यादा खतरनाक होती है। रही बात अंदर झांकने की तो दूसरे के अंदर झांकने के लिए तो लोग मौका ताड़ते ही रहते हैं। अपने अंदर कौन झांकता है ? जबकि अंदर झांकने से कई समस्याएं खत्म हो सकती हैं। संत-महात्मा भी ऐसी सलाह देते हैं। लेकिन दूसरे की सब देख लेते हैं और अपनी किसी को नहीं दिखती ।

ऐसा ही सोचने और करने से जाड़े में किसी-किसी के चीलर पड़ने की सम्भावना प्रबल हो जाती है। पड़ भी जाते होंगे। कौन देखने जाता है ?

एक महाशय से किसी ने कहा कि आज आपने स्नान नहीं किया है। वे बोले किया तो है। वह आदमी बोला लगता तो नहीं है। तब महाशय ने एक राज की बात बताई। बोले स्नान किया तो है लेकिन कंकड़ी स्नान किया है। पूछने पर इन्होंने बताया कि कही चार-पाँच कंकड़ लाकर रख दो। और उसी पे जितना नहाना हो उतना बाल्टी पानी डाल दो। इसके बाद अपने ऊपर पानी का हल्का सा छीटा मार कर कपड़े बदल लो। यही कंकड़ी स्नान कहलाता है और आजकल इसका बहुत चलन है।

स्नान करना तो दूर कुछ लोगों ने तो इस जाड़े में हाथ और मुहँ तक धोना छोड़ दिया है। वहीं कुछ लोगों ने एलान कर दिया है कि शरीर में कुछ लगा थोडे ही रहता है। हाथ-मुँह धो लो समझो स्नान हो गया। इस सिद्धांत से तो जल संकट रोकने में काफी सहायता मिलेगी। लेकिन कंकड़ी स्नान वाले तथा पानी शरीर के बजाय पीछे फेकने वाले भी इसका पालन करें तब तो। आज सबका अपना-अपना सिद्धांत होता है। तब दूसरे पर कौन बिचार करे। गलत-सही से भी मतलब नहीं बस अपना हो। अपना आगे और पराया भागे। इसी का चलन है। इसे आज के शासक-प्रशासक भी अमल में लाते हैं। जो नहीं लाना चाहते, दूसरे को अमल में लाते देख उन्हें भी अमल लगती है।

कुछ लोगों ने पानी पीना भी कम कर दिया है। कुछ लोग तो खाने के बाद पोंछना ही सही मानते हैं। बार-बार हाथ धोने को पानी की बर्बादी कहते हैं। बर्बादी रुके तो सही। कारण कुछ भी हो। कुछ लोग तो सुबह भी पोंछने वाली बिदेशी तकनीक को उचित ठहराने लगे हैं। भले ही भारतीय परम्परा में पले-बढ़े होने से हिम्मत न जुटा पाएँ।

कहाँ तक और क्या–क्या बताएं कुछ लोग तो दार्शनिक हो गए हैं। कहते हैं सब माया है। न कोई अपना है और न पराया है। यह जो काया है यह भी अपनी नहीं है। तो क्या फायदा है इसे मल-मल धोने में ? नहाना मूर्खता है। कबीर दास जी ने स्वयं कहा है कि-

“क्या जानै काया संग चलेगी, काहे को मल मल धोई”।

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एस के पाण्डेय,

समशापुर (उ. प्र.)।

बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो

ये सुकूत-ए-नाज़, ये दिल की रगों का टूटना
ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो

निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परीशां, दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म
सुबह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो

कूछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़िज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो

जिसकी फ़ुरक़त ने पलट दी इश्क़ की काया फ़िराक़
आज उसी ईसा नफ़स दमसाज़ की बातें करो

फ़िराक़ गोरखपुरी

लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में

लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलम-ए-ना-पायदार में

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दागदार में

उम्र-ए-दराज़ माँग के लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए, दो इंतज़ार में

कितना है बदनसीब ज़फर दफ़न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

बहादुर शाह ज़फर

हम लोग ज़रा देर से बाज़ार में आये

उम्मीद से कम चश्म-ए-खरीदार में आये
हम लोग ज़रा देर से बाज़ार में आये

सभी को ग़म है समंदर के खुश्क होने का
कि खेल ख़त्म हुआ कश्तियाँ डुबोने का

न जिसकी शक्ल ही कोई न जिसका नाम ही कोई
एक ऎसी शक्ल का क्यूँ हमें अज़ल से इंतज़ार है

लोग सर फोड़ कर भी देख चुके
ग़म की दीवार टूटती ही नहीं

फिर कहीं ख्वाब-ओ-हकीक़त का तसादुम होगा
फिर कोई मंजिल-ए-बेनाम बुलाती है हमें

इस नतीजे पे पोहंचते हैं सभी आखिर में
हासिल-ए-सैर-ए-जहां कुछ नहीं हैरानी है

मरकज़-ए-दीदा-ओ-दिल तेरा तसव्वुर था कभी
आज इस बात पे कितनी हँसी आती है हमें

शहरयार

Tuesday, January 4, 2011

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

रामधारी सिंह दिनकर

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा
जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा
केदारनाथ अग्रवाल

आज भी कुछ शेष...

ह्रदय के दर्पन के बिख्ररे टुकडो को,
समेटने मे बीत जाते है युग कई
फिर भी, कही रह जाता है
कोई एक छोट सा टुकडा,
जो उम्र के अन्तिम छोर तक
चुभता रहता है...
आखो के अश्रुधारो को सुखने मे
लग जाते है साल कई
फिर भी कही एक मोती आसू का
छिपा होता है पलक की
कोठरी के भीतर
जो टीस पैदा करता रहता है
और आभास कराता रहता है की,
आज भी कुछ शेष...

साभार हिन्दी काव्य