Saturday, April 5, 2008

सच कहूँ तो आँखें नम हैं!

खिड़की, दरवाजों पर पड़े
इसकी यादों के जाले
संग लिए,
गलियारे में आते-जाते
दिन के उजाले का
रंग लिए,
टैरेस के पीपल-नीचे
जगे सपनों के निराले
ढंग लिए,
कई सौ साँसों में सालों
इसने जो पाले वो
उमंग, लिए,
चल दिया दूर-
मैं बदस्तूर !
क्या कहूँ मैं?
अब इस दिल ने
संजोए कई सारे हीं गम हैं!
सच कहूँ तो आँखें नम हैं !!

सच कहूँ तो आँखें नम हैं!

बेलाग दिया जो हमको
हँसी-खुशी के कई उन
खातों को,
फूलों की बू-सी कोमल
दरो-दीवार की रूनझून
बातों को,
सब्ज-लाँन कभी धूल
और यारों की गुमसुम
रातों को,
बेबात युद्ध फिर संधि,
ऐसे अनगढे खून के
नातों को,
कर याद रोऊँ,
इन्हें कहाँ खोऊँ?
क्या कहूँ मैं?
रेशम-से वो पल हीं
नई राह में मेरे हमदम है!
सच कहूँ तो आँखें नम हैं!!!

पत्थर का जहां

पत्थर का खुदा,पत्थर का जहां,पत्थर का सनम भी देख लिया,
लो आज तुम्हारी महफिल में तेरा यह सितम भी देख लिया ।

तुम लाख हीं मुझसे कहती रहो,यह इश्क नहीं ऎसे होता,
जीता कोई कैसे मर-मर के,मैने यह भरम भी देख लिया।

इस बार जो मेरी बातों को बचपन का कोई मज़ाक कहा,
है शुक्र कि मैने आज के आज तेरा यह अहम भी देख लिया।

कहते हैं खुदा कुछ सोचकर हीं यह जहां हवाले करता है,
यह ज़फा हीं उसकी सोच थी तो मैने ये जनम भी देख लिया।