Monday, September 10, 2007

नवाज शरीफ की वापसी फिर जबरन देशनिकाला

पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ सात वर्षों तक निर्वासित जीवन बिताने के बाद इस्लामाबाद पहुंच गए हैं।लंदन से पीआईए की उड़ान संख्या 786 से चले शरीफ़ अब इस्लामाबाद एयरपोर्ट पहुंच गए हैं जहां एयरपोर्ट को सील कर दिया गया और सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम किए गए हैं। मगर अफसोस कि परवेज साहब ने उन्हें देश में घुसने नहीं दिया और जबरन उन्हें जेद्दा भेज दिया गया। नवाज शरीफ के आने की खबर पाते ही देश में सार्वजनिक रैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया है और एयरपोर्ट को चारों ओर से सुरक्षा बलों ने घेर रखा है। इस्लामाबाद एयरपोर्ट के रास्ते में पुलिस ने अवरोध लगा दिए हैं और हर जगह पुलिसकर्मी तैनात है क्योंकि बड़ी संख्या में लोग नवाज़ शरीफ़ का स्वागत करने एयरपोर्ट जाना चाहते हैं। कल रात नवाज़ शरीफ़ की पार्टी मुस्लिम लीग नवाज़ के कार्यालयों पर छापे मारे गए और कई लोगों को गिरफ्तार भी किया गया है। कहा जा रहा है कि नवाज़ शरीफ़ इस्लामाबाद पहुंचने के बाद एक बड़े जूलूस के साथ लाहौर जाना चाहते हैं लेकिन सैनिक सरकार कोशिश कर रही है ऐसा कोई जूलूस आयोजित न हो। हालांकि नवाज शरीफ को जबरन वापस भेजने के लिए पाकिस्तान सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को नज़रअंदाज़ कर दिया जिसके तहत नवाज़ शरीफ़ को वापस आने की अनुमति दी गई थी।ग़ौरतलब है कि कुछ दिन पहले पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें स्वदेश लौटने की अनुमति दे दी थी। 1999 में नवाज़ शरीफ़ का तख़्ता पलट दिया गया था और अगले साल उन्हें पाकिस्तान से निर्वासित कर दिया गया था।नवाज़ शरीफ़ की वापसी ऐसे समय में हो रही है जब पाकिस्तान में राष्ट्रपति मुशर्रफ़ के लिए स्थितियां बेहतर नहीं हैं। हालांकि नवाज को जबरन जेद्दा भेजकर पाकिस्तान सरकार यह भले सोच रही हो कि उसने जीत हासिल कर लिया है मगर शायद उसकी परेशानियां कम नहीं हुई है। जनता का प्रतिरोध अपने चरम पर है। ऐसे में इसे दबा पाना उसके लिए आसान नहीं होगा। फिर मुर्शरफ साहब को अंतरराष्ट्रीय मंच पर जबाब भी देना होगा।

Sunday, September 9, 2007

आईएईए का सनसनीखेज खुलासा ईरान ने लगाए दो हजार सेंट्रीफ्यूज

ईरान के मामले ने एक बार फिर नया मोड़ ले लिया है। पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने ईरान के साथ इस बात पर सहमति जताई थी कि वो अपने परमाणु संबंधी विवादों को दो महीने में हल कर लेगा। मगर हाल ही में आईएईए ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें कहा गया है कि ईरान ने भले ही विवाद हल करने में अपनी रुचि दिखाई है मगर अब तक वह अपने घोषित कार्यक्रम के अनुसार दो- तिहाई सेंट्रीफ्यूज लगा चुका है और अब वो इस स्थिति में आ चुका है कि हल के लिए उसे कोई मजबूर नहीं कर सकता। आईएईए की यह रिपोर्ट बोर्ड के सदस्यों के बीच जारी की गई है। रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल जून-जुलाई में ईरान ने कहा था कि उसे अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए तीन हजार सेंट्रीफ्यूज लगाने हैं और अगस्त तक उसने जितने सेंट्रीफ्यूज लगाए हैं उसमें से दो हजार सक्रिय हो चुके हैं। तीन सितंबर को एक सा‌क्षात्कार में आईएईए के चेयरमैन मोहम्मद अलबरदेई ने इस बात को स्वीकार किया था। गौरतलब है कि गैस सेंट्रीफ्यूज का इस्तेमाल यूरेनियम संवर्द्धन में किया जाता है। दरअसल यूरेनियम के भारी आइसोटोप जब यूरेनियम हेक्साफ्लोराइड गैस में बदलते हैं तो वे सेंट्रीफ्यूज के दीवारों से टकराकर संतृप्त यूरेनियम-२३५ बनाते हैं। इसके बार हजारों सेंट्रीफ्यूज मिलकर इस यूरेनियम को इतना संवर्द्धित कर देते हैं कि इसके साढ़े तीन प्रतिशत संवर्द्धन में ही परमाणु रियेक्टर चलाया जा सकता है और नब्बे फीसदी संवर्द्धन के बाद परमाणु बम बनाया जा सकता है। दूसरी तरफ ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने भी इसी सप्ताह घोषणा की थी कि उनका मुख्य उद्देश्य तीन हजार सेंट्रीफ्यूज स्थापित करना है ताकि राष्ट्रीय अखंडता को सुरक्षित रखा जा सके। मगर आईएईए की रिपोर्ट में हुए खुलासे के बाद एक बार फिर बहस तेज हो गई है। जानकारों के अनुसार अमेरिका इस सारे मामले पर आईएईए के अध्यक्ष अलबरदेई को जिम्मेदार मान रहा है। उसका मानना है कि जब ईरान पर प्रतिबंध और हमले की बात कही जा रही थी तब आईएईए ने ही सबसे पहले विरोध जताया था और उसी के कारणा ऐसा संभव नहीं हो पाया था। अमेरिकी दृष्टिकोण का समर्थन वाशिंगटन पोस्ट ने भी अपने बुधवार के संपादकीय में किया है। कुल मिलाकर एक बार फिर आईएईए ने ईरान के मसले को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बहस का मुद्दा बना दिया है। मगर इस बार इसके लिए निशाना हैं खुद आईएईए के अध्यक्ष। वैसे भी अलबरदेई का कार्यकाल समाप्त होने वाला है। नए कार्यकाल में पद पर दोबारा आने के लिए उन्हें समर्थन मिल पाएगा या नहीं यह तो भविष्य के गर्त में हैं मगर ईरान के दो हजार सेंट्रीफ्यूज स्थापित और सक्रिय होने की खबर ने कईयों के होश अवश्य उड़ा दिए हैं।

सम्राज्यवाद की नंगई

जान ब्लेमी फॉस्टर
11 सितंबर, 2001 की घटना के बाद अमेरिका की हरकतों को देखकर लगने लगा है कि वो एक नए किस्म का सैन्यवाद और सम्राज्यवाद तैयार कर रहा है। वैसे अमेरिका के लिए न तो सैन्यवाद नया है और न ही सम्राज्यवाद। अपने शुरुआती समय से ही यह महाद्वीपों से लेकर वैश्विक स्तर पर अपनी विस्तारवादी ताकत का मुजाहिरा करता रहा है। बदलाव केवल इतना है कि अब वो खुले तौर पर इन सब कामों को अंजाम दे रहा है। वो बिना किसी लागलपेट के अपनी महत्वाकांक्षा का दायरा बढ़ा रहा है। विदेशी संबंधों की परिषद से जुड़े मैक्स बूट मानते हैं कि "इन दिनों अमेरिका इराक और बाकी दुनिया में बड़े खतरे का सामना कर रहा है .. इन खतरों से निपटने के लिए पूरी ताकत का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए नहीं कर रहा है कि कहीं उसपर सम्राज्यवाद का आरोप न लग जाय। ऐतिहासिक रूप से इस एक शब्द के साथ इतने कारनामें चिपके हैं कि अब इस शब्द से शर्मशार होने के बजाय इसके वास्तविक प्रयोग से शर्मशार होना चाहिए "। उनका कहना है कि अमेरिका को अपने सम्राज्यवादी शासन को बेझिझक बिना किसी माफीनामे के शर्मशार होने के लिए तैयार हो जाना चाहिए "। अगर वाशिंगटन की योजना इराक में स्थाई आधार की नहीं है तो उसे महज अमेरिकी साम्राज्यवाद की नाक बचाने के नाम पर नाराज होनेवालों की परवाह तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिए "( अमेरिकन इंपेरलिज्म?: नो नीड टू रन फ्रॉम द लेवल," यूएसए टुडे, 6 मई, 2003)। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के अंतरराष्ट्रीय विकास अध्ययन से जुड़े दो प्रोफेसर दीपक लाल और जेम्स एस कोलमैन भी ऐसी ही कुछ सलाह देते हुए कहते हैं "पैक्स अमेरिकाना के लिए सबसे पहला और जरूरी काम मध्यएशिया में एक नई व्यवस्था के रास्तों की तलाश करना होगा।...लेकिन इस तरह के बदलाव को ज्यादातर लोग सम्राज्यवादी चाल से जोड़कर देखेंगे। और इस कदम को मध्यएशिया के तेल के खजाने पर कब्जे से जोड़कर देखा जाएगा। लेकिन इस तरह की आपत्तियों पर बहुत ज्यादा कान देने की जरूरत नहीं हैं चाहे वो सम्राज्यवादी ही क्यों न लगे। (द इंपेरियल टेंस (2003)- संपादक -एंड्र्यू बेसेविच में इन डिफेंस ऑफ एंपायर्स लेख से) हालांकि इन विचारों में नवरूढ़िवादिता पूरी तरह मौजूद है लेकिन आज अमेरिकी विदेश नीति की मुख्यधारा में इसकी तूती बोलती है। लेकिन सच्चाई ये है कि मौजूदा अमेरिकी विस्तार को लेकर अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में छोटे स्तर पर ही सही एक विरोध का स्वर भी है। इवो दाल्देर और जेम्स लिंडसे जैसे ब्रोकिंग इंस्टीट्यूशन के सिनियर फेलो तो मानते हैं कि वास्तव में बहस सम्राज्य को लेकर नहीं बल्कि उसके स्वरूप पर है। (न्यूयार्क टाइम्स, 10 मई 2003) हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मानव अधिकार नीति बनाने वाले विभाग के निदेशक मिशेल इग्नेतेफ खुलैतौर पर कहते हैं कि यह एक नए सम्राज्यवाद का दौर है ..सिद्धांत में तो यह मानवीय दिखता है लेकिन व्यवहार में पूरी तरह साम्राज्यवादी चरित्र लिए हुए है। इसने एक उपसंप्रुभता जैसी स्थिति तैयार की है जिसमें केवल सैद्धांतिक तौर पर स्वतंत्रता की अनुगूंज है, व्यावहारिक तौर पर आप उसे कहीं से महसूस नहीं कर सकते हैं। यही वजह है कि अमेरिकन अफगानिस्तान से लेकर बाल्कन जैसे इलाकों तक में मौजूद हैं। वे इन क्षेत्रों में एक सम्राज्यवादी सत्तातंत्र को बनाए हुए हैं जो कि पूरी तरह अमेरिकी हित में काम करता है। वे वहां बर्बरता के खतरे से निपटने के लिए हैं । रोम की तर्ज पर "सम्राज्यवादी बुनावट और व्यवस्था " को स्थापित करने की जिम्मेदारी पश्चिम के इस अंतिम सैन्य राज्य और सम्राज्यवादी देश अमेरिका की है। हम अब बर्रबरता के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं..इन्हे दंड देने कुछ लोग पहुंच चुके हैं और बाकी पहुंचने वाले हैं "। ("The Challenges of American Imperial Power," Naval War College Review, Spring 2003). ये सब अमेरिकी सम्राज्य के वास्तविक ताकत को ही प्रदर्शित करता है। 2002 में जारी की गई अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति की प्रस्तावना में राष्ट्रपति जार्ज बुश घोषणा करते हुए कहते हैं कि सोवियत संघ के पतन के बाद राष्ट्र के सफल होने का केवल एक स्थाई मॉडल बचता है जिसमें शामिल है स्वतंत्रता , लोकतंत्र और मुक्त उद्यमशीलता। और यह सब अमेरिकी पूंजीवाद के साथ सही तरीके से फिट हो गया है। इस तरह के मॉडल के दिशा निर्देशों की अवहेलना करने वाला समाज गर्त में गया है और आगे भी जाता रहेगा। अमेरिकी समाज अपनी सुरक्षा के लिए खतरे की शुरुआत यहीं से मानता है। इस दस्तावेज का ज्यादातर हिस्सा आनेवाले दिनों में धरती पर वाशिग्टन के काबिज होने और रणनीति की योजनाओं से भरा हुआ है। यह साफतौर पर सुरक्षापूर्व आक्रमण के बहाने उन देशों के खिलाफ जंग का ऐलान है जो अमेरिकी या उसके सहयोगियों के दबदबे के लिए खतरा या फिर चुनौती बननेवाले हैं। नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में किसी भी ऐसे देश के खिलाफ भविष्य में सैन्य हस्तक्षेप के विकल्प पर मुहर लगी है जो अमेरिकी प्रतिद्वंदी के रूप में उभरने की कोशिश करते हैं। 13 अप्रैल 2004 को अमेरिकी राष्ट्रपति तथाकथित दुश्मनों के खिलाफ आक्रामक हो जाने और लगातर बने रहने की जरूरत पर बल देते हैं। 11 सितंबर 2001 के बाद अमेरिका अफगानिस्तान और इराक के खिलाफ युद्ध छेड़ने के साथ दुनिया के हर हिस्से में अपना सैन्य केंद्र स्थापित कर रहा है। सिर्फ रक्षा पर वो इतना खर्च कर रहा है जितना पूरी दुनिया मिलकर अपनी सेना पर खर्च करती है। इस अमेरिकी बारूद की गंध को सलाम करते हुए न्यूयार्क टाइम्स के एक पत्रकार ग्रेग इस्टरब्रुक महोदय कहते हैं कि आज अमेरिका की सैन्य ताकत का पूरी दुनिया में सानी नहीं है। यह रोमन सम्राज्य के ताकतवर सैन्य टुकड़ियों और 1940 के वेरमैक्ट से भी कई गुना ताकतवर सेना के रूप मे जानी जाती है। बुश प्रशासन में मौजूद नवरूढ़िवादियों की आलोचनाएं भी होनी शुरू हो गईं और उन्हे बाहर का रास्ता दिखाने की मांग भी जोर पकड़ती जा रही है 'इन कमीनों को बाहर फैंका जाय '। लेकिन सरकार चलानेवाले बुश प्रशासन पर रत्ती भर भी इसका प्रभाव नहीं पड़ा है। सम्राज्यवाद और सैन्यवाद की योजनाओं को अंजाम यही नवरूढ़िवादी दे रहे हैं। उदाहरण के लिए लॉस एंजेल्स के कैर्लिफोर्निया विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ानेवाले मिशेल मान अपनी किताब "इनकोहरेंट एंपायर "(2003) में कहते हैं कि इस नवरुढ़वादियों की चौकड़ी ने जार्जबुश के कार्यकाल में व्हाइट हाउस और रक्षा विभाग पर कब्जा कर लिया है। मान इसका अंतिम इलाज इन सैन्यवादियों के निष्कासन में देखते हैं। इस बारे में विचार करते हुए हम एक अलग किस्म के निर्णय पर पहुंचते हैं। जिसमें अमेरिकी सैन्यवाद और सम्राज्यवाद की गहरी जड़ें अमेरिकी इतिहास और इसके पूंजीवाद के राजनीतिक- आर्थिक तर्कों में समाहित है। इस बात को अब अमेरिकी सम्राज्यवाद के घनघोर समर्थक भी स्वीकारने लगे हैं कि पूत के पांव तो पालने से ही दिखने शुरू हो गए थे। बूट अमेरिकी सम्राज्यवाद (?) में लिखते हैं कि करीब 1803 मे जब थामस जैफर्सन ने लुसियाना क्षेत्र को खरीदा तभी से अमेरिका एक सम्राज्यवादी देश के तौर पर स्थापित हो चुका था। पूरी 19 वीं शताब्दी में जिसे जैफर्सन 'मुक्ति का शासन' नाम देते हैं, यह पूरे महाद्वीप तक फैल चुका था। आगे चलकर 1898 में स्पैनिश-अमेरिकी युद्ध में अमेरिका विजेता बना और जमीनों को उपनिवेश बना डाला। उसके तत्काल बाद फीलिपीन-अमेरिका युद्ध में श्वेतों के वर्चस्व को जायज ठहराने की कोशिश की। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका सहित उसके सहयोगी सम्राज्यवादी देशों ने पुराने राजनैतिक जामा को भले ही छोड़ दिया लेकिन उसकी जगह एक आर्थिक सत्ता के लिए सैन्य ताकत के इस्तेमाल का भी दरवाजा खोल दिया। शीतयुद्ध में यह राज छुपा रहा, लेकिन नवउपनिवेशवाद के याथार्थ में आने के बाद यह खुलकर सामने आ गया। ऐसी सत्ताओं का उदय केवल अमेरिका के लिए या फिर किसी राज्य विशेष का गुण भर नहीं है बल्कि यह पूंजीवाद के तर्क और उसके पूरे इतिहास की अवश्यभावी परिणति है। पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के अपने जन्मकाल से ही पूंजीवाद एक वैश्विक विस्तार वाली व्यवस्था के रूप में मौजूद रहा है। वर्चस्व के स्तर पर यह महाध्रुवीय और उपध्रुवीय, केंद्रीय और सहयोगी शाखाओं के बीच बंटा रहा। आज सम्राज्यवादी व्यवस्था का उद्देश्य सहयोगी देशों की अर्थव्यवस्था में मुख्यधारा वाले पूंजीवादी देशों के निवेश को आसान बनाना है। इसमें सबसे बड़ा फायदा कच्चेमाल की सस्ती आपूर्ति सुनिश्चित करते हुए अतिरिक्त आर्थिक उत्पादन को सहयोगी देशों के मार्फत बाकी देशों में बेचना है। तीसरी दुनिया इसमें सस्ते श्रम के स्रोत के रूप में जगह बनाती है। सहयोगी देशों की अर्थव्यवस्था अमेरिका की बाहरी जरूरतों को पूरा करने के साथ बाकी मुख्य पूंजीवादी देशों की अंदरूनी जरूरतों को भी पूरा करती है। परिणाम स्वरूप दुनिया के गरीब देश ( कुछ अपवादों को छोड़कर ) धनी देशों पर पूरी तरह निर्भर होने के साथ भयंकर ऋणजाल में फंस गए।1980 के रीगन युग में संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी आक्रामक शीतयुद्ध का नवीनीकरण करते हुए हथियारों की होड़ में इजाफा किया। साथ ही उसी वक्त 1970 की क्रान्तियों को पलटने को पलटने का भी प्रयास किया। अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के खिलाफ गुप्त युद्ध को जारी रखा। यह फेहरिस्त यहीं नहीं रुकती। सद्दाम हुसैन शासित इराक को सैन्य और आर्थिक सहायता देने के साथ 1980-88 में हुए इराक-इरान युद्ध में भी इसने इराक का समर्थन किया। इस दौरान इसने मध्य-पूर्व में अपनी सीधे तौर पर सैन्य हस्तक्षेप को बढाया और इसी क्रम में 1980 के शुरुआत में लेबनान में असफल हस्तक्षेप किया गया (अमेरिका यहां से 1983 के मैरिन बैरक के विनाशकारी बमबारी के बाद हटा)। पूरी दुनिया के विश्व क्रान्तिकारी आन्दोलनों और अमित्र देशों को काबू में करने के लिए बनायी गयी गुप्त कार्यवाहियों को प्रायोजित किया। मुख्य छद्म युद्ध निकारागुआ में सान्डीनिस्टा के विरुद्ध किया गया। इसके अलावा अल-सल्वाडोर और ग्वाटेमाला में क्रान्तिकारी ताकतों के भी खिलाफ इसका इस्तेमाल किया गया। 1983 में अमेरिका ने ग्रेनाडा के एक छोटे द्वीप को जीत लिया। 1989 के दिसंबर महीने में रीगन के उत्तराधिकारी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश मध्य अमेरिकी महाद्वीप पर पुर्ननियन्त्रण की योजना के बतौर पनामा पर भी अधिकार किया। लेकिन सम्राज्यवाद के छद्म युद्ध का पूरा खुलासा 1989 में सोवियत ब्लॉक टूटने के बाद हुआ। "अमेरिकन एम्पायर"(2000) में एंड्रीव वेसेविच लिखते हैं कि "1898 की (स्पेन -अमेरिका युद्ध में)विजय ने पूरे कैरिबियन द्वीप को एक अमेरिकी झील में बदल दिया था ठीक उसी तरह जैसे 1989 के शीतयुद्ध में मिली विजय ने पूरी धरती को संयुक्त राज्य अमेरिका के अधीन ला खड़ा किया। उसके बाद से तो अमेरिकी स्वार्थ पर कोई पाबंदी लगने वाला ही नहीं बचा। (177)।" विश्व मंच से सोवियत यूनियन के अचानक विघटन के बाद तो मध्य-पूर्व में यूएसए की सैन्य हस्तक्षेप की संभावना और बढ गयी। यह हुआ भी और 1991 के बसंत में यह युद्ध शुरू भी हो गया। यद्यपि कि अमेरिका को इराक के करीब देश कूवैत पर चढाई की योजना की जानकारी पहले से थी लेकिन तब तक कोई आपत्ति नहीं की गई जबतक कि इराक ने उसको व्याहारिक रूप नहीं दे दिया। (इसके लिए सद्दाम हुसैन के वक्तव्य और अमेरिकी राजदूत ऐप्रिल ग्लास्पी की प्रतिक्रिया को देखें-न्यूयार्क टाइम्स इन्टरनेशनल, सितम्बर23,1990) इराक पर चढ़ाई के बहाने संयुक्त राज्य अमेरिका को मध्यपूर्व एशिया में सैन्य हस्तक्षेप का बहाना मिल गया। खाडी युद्ध में 100,000 से 200,000 के बीच इराकी सैनिक मारे गये और कम से कम 15,000 इराकी नागरिक सीधे अमेरिका और ब्रिटिश सेनाओं की बमबारी में मारे गये (पॉलिटिकल इकॉनामी की रिसर्च यूनिट, बिहाइन्ड दी इनवैजन ऑफ इराक, 2003)। इस युद्ध की मुख्य उपलब्धियों पर टिप्पणी करते हुए राष्ट्रपति बुश ने अप्रैल 1991 में यह ऐलान किया कि भगवान कसम हमने वियतनाम सिंड्रोम को हरा दिया है। हालांकि इराक पर आक्रमण और उस पर कब्जे की योजना को कई खास वजहों से अंजाम नहीं दिया गया। एक तो डर ये था कि उन्हें अरब देशों का समर्थन न मिले दूसरा था सोवियत ब्लॉक के ध्वस्त होने के बाद राजनीतिक उठापटक। 1990 के दशक के बाकी वक्त में अमेरिका की सत्ता खासतौर पर डेमोक्रेट बिल क्लिंटन के हाथ में रही। उस दौरान भी अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप हॉर्न ऑफ अफ्रीक (इथोपिया और सोमालिया जैसे देशों के भौगोलिक आकार पर दिया नाम) और मध्य एशिया के अलवा पूर्वी यूरोप तक जा पहुंचा था। इस चरण के सैन्य अभियान की परिणति यूगोस्लाविया (कोसोवो) में 11 हफ्ते तक की बमबारी के रूप में सामने आया। जिसके बाद यहां नाटो की जमीनी सेनाएं घुस गईं। जातीय संघर्षों को रोकने के नाम पर बाल्कन में हुई यह घुसपैठ अनुमानत: पूर्व सोवियत संघ के उन क्षेत्रों पर कबिज होने की कोशिश थी जहां सोवियत प्रभाव थोड़ा बहुत बचाखुचा था। बीसवीं शताब्दी के आते-आते तो अमेरिकी के सत्ताधारी कुलीनों ने साम्राज्यवाद ने ऐसे कठोर नीति की ओर रुख किया जो शताब्दी की शुरुआती सालों देखने को नहीं मिला था। अब तो अमेरिकी सम्राज्यवाद के लिए पूरी धरती ही निशाने पर आ गई। हालांकि उस वक्त वैश्वीकरण के विरोध की लहर भी उठ रही थी और 1999 में सिएटेल इसका सबसे बेहतर उदाहरण बना। लेकिन अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान उतनी ही तेजी से 21वीं सदी के साम्राज्यवाद को विस्तार दे रहा था। इसके तहत अमेरिकी प्रभुत्व वाले देशों के भीतर नवउदारवादी वैश्वीकरण अपना पैर जमा रहा था। न्यूयार्क टाइम्स में अमेरिकी विदेश नीति के स्तंभकार और पुलित्जर पुरस्कार विजेता थामस फ्रिडमैन कहते हैं कि बाजार में सक्रिय अदृश्य हाथ के सक्रिय होने के लिए अदृश्य मुट्ठीयां जरूरी है यानी मैकडॉनल्ड की सफलता एफ-15 बनाने वाले मैकडॉनल्ड डगलस पर निर्भर है। कुल मिलकार सिलकॉन वैली को सुरक्षित रखने वाली यह अदृश्य मुट्ठी है अमेरिकी राज्य सेना, वायुसेना, जलसेना और मरीन कॉर्पस्। वैसे इस अदृश्य मुट्ठी का बहुत छोटा हिस्सा ही छुपा हुआ है और आनेवाले समय में इसकी अदृश्यता और कम होती जाएगी। यह तो निश्चित हो गया है कि सम्राज्यवाद अब धीरे-धीरे चरणबद्ध तरीके से सैन्यवादी सम्राज्यवाद में विकसित हो रहा है। 1990 से ही अमेरिकी सत्ता के गलियारों में यह बहस जोरों पर है कि आखिर अमेरिकी मुहिम का स्वरूप क्या होगा जबकि अब उसे सोवियत संघ जैसी ताकत की भी चुनौती नहीं है और वह दुनिया का अकेला महाशक्ति बन चुका है। समान्यत: कभी भी अमेरिकी प्रभुत्व वाले वैश्विक शासन के आर्थिक स्वार्थों को लेकर कभी भी कोई संदेह नहीं रहा है। 1990 में वैश्वीकरण की नवउदारवादी व्याख्या अपनी ताकत दिखाने लगी खासकर जब पूंजी के प्रवाह पर लगनेवाले प्रतिबंधों को हटा दिया गया। जिसके साथ ही धनी देशों की ताकत में बेपनाह इजाफा हुआ और वे विश्व अर्थव्यवस्था के केंद्र में आ गए और गरीब देश उनके पिछलग्गू बने रहे। इस मामले में विश्व व्यापार संगठन का विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के सहयोगी के रूप में उभरना एक बड़ी घटना थी। इस संगठन ने आर्थिक मंच पर एकाधिकार पूंजी के नए नियमों को शक्ल देना शुरू किया। दुनिया के ज्यादातर देशों में यह धारणा प्रबल होने लगी कि आर्थिक सम्राज्यवाद अब अपनी वीभत्स चेहरा दिखाने लगा है। दुनिया की अर्थव्यवस्था के केंद्र के रूप में तो यह जरूर उभरा और उसके दम पर वैश्वीकरण के नवउदारवादी मॉडल को एक रुतबा भी हासिल हुआ लेकिन 1997-98 में एशियाई वित्तीय संकट ने इसके वैश्विक स्तर पर वित्तीय कमजोरियों को उजागर कर दिया और यह संकेत भी दे दिया कि यह व्यवस्था कितनी ढीली है। हालांकि नए एकध्रुवीय व्यवस्था में अमेरिकी प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए सैन्य शक्ति के इस्तेमाल की मात्रा और उसके असर को लेकर अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में एक बहस अभी भी जारी है। यहां साफतौर पर एक बात उभर रही है कि अगर नवउदारवाद आर्थिक मंदी का परिणाम है तो ऐसे में आर्थिक संकट के लागत को गरीब देशों की ओर धकेल देना चाहिए। अमेरिकी आर्थिक वर्चस्व में अगर कमी आती है तो दूसरे उपायों के जरिए भी उसे हासिल किया जा सकता है। यानी कुल मिलाकर सैन्य कार्रवाई भी अब इसका विकल्प बन सकता है। सोवियत संघ के विघटने के बाद जार्ज बुश के प्रशासन वाले अमेरिकी रक्षा विभाग ने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को तत्काल बदलने की जरूरत महसूस की। अब इसे नए वैश्विक व्यवस्था के माकूल बनाने की कोशिश की गई। 1995 में इस बारे में रक्षा विभाग के के सहसचिव पॉल वोलफोविज के नेतृत्व में एक रिपोर्ट भी तैयार की गई । यह रिपोर्ट डिफेंस प्लानिंग गाइडेंस के नाम से काफी मशहूर हुई। इसमें साफतौर पर संकेत था कि आज अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के सामने सबसे बड़ी चुनौती अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने वाली किसी भी ताकत को उभरने से रोकना है (न्यूयार्क टाइम्स,8 मार्च,1992)। आनेवाले समय में बहस अब इस ओर भी मुड़ती दिख रही है कि क्या 1990 की तरह अमेरिका को अपने वर्चस्व को कायम रखना चाहिए या फिर अब उसे बहुपक्षीय वाली व्यवस्था को अपना लेना चाहिए। डोनाल्ड रमश्फिल्ड और पॉल वोलफोविट्ज जैसे जार्ज डब्लू बुश के नायकों ने तो बकायदा एक नए प्रोजेक्ट "न्यू अमेरिकन सेंचुरी" की शुरुआत भी कर दी। जिसने बुश के व्हाइट हाउस में दोबारा चुने जाने का रास्ता तैयार किया था। उसी वक्त उपराष्ट्रपति के उम्मीदवार डिक चेनी के अनुरोध पर 'रिबिल्डिंग अमेरिकाज डिफेंस' (सितंबर, 2000) नाम से विदेश नीति को लेकर एक पेपर लाया गया। एक तरह से यह 'डिफेंश प्लानिंग गाइडेंस' का और विद्रूप रूप था जिसमें बहुत अक्रामक किस्म के बदलाव किए गए थे। 11 सितंबर 2001 के बाद तो इस नजरिए को अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति 2002 में शामिल कर लिया गया। इस नई नीति को गाजे-बाजे के साथ इराक के मुद्दे पर व्यावहारिक रूप दिया गया। व्यावहारिक अर्थों में यह राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति नए विश्वयुद्ध की घोषणा करता है। आमतौरपर जैसा कि हम देख चुके हैं कि नवरूढ़िवादियों ( जो 2000 में हुए विवादित चुनावों की देन हैं) ने इन नाटकीय बदलावों के जरिए बड़ी आसानी से अमेरिकी सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी, जिसे 11 सितंबर 2001 के आतंकी हमले ने सैन्यवादी सम्राज्यवाद की अकांक्षा को और मजबूती दे दी। हालांकि सोवियत संघ के पतन के बावजूद अमेरिकी सत्ता ने उसी मुस्तैदी से द्विदलीय प्रोजेक्ट की परियोजना को जारी रखा जो कि शुरुआती दिनों में थी। क्लिंटन के कार्यकाल में भी अमेरिका पूर्व सोवियत राज्यों में आने वाले बाल्कन क्षेत्रों के युद्ध में शामिल रहा और उसकी कोशिश रही की वह मध्य एशिया में (पूर्व सोवियत शासित राज्य) के आसपास अपने सैनिक अड्डे को स्थापित कर ले। 1990 के अंतिम दिनों में तो अमेरिका ने इराक में रोजना बम गिराता रहा। 2004 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के डेमोक्रेट उम्मीदवार जॉन कैरी ने साफतौर पर कहा कि वो इराकी युद्ध और आतंक के खिलाफ मुहिम को कहीं ज्यादा दृढ़ निश्चय के साथ जारी रखेंगे और सैन्य संसाधनों की कमी नहीं होने दी जाएगी। यानी कुल मिलाकर अंतर सिर्फ तरीके का। लेकिन अब हम हम इसे नग्न सम्राज्यवाद न कहें तो क्या कहें। ऐतिहासिक भौतिकवाद के नजरिए से अगर हम पूंजीवाद के आलोचना करें तो सोवियत संघ के बाद अमेरिकी सम्राज्यवाद की दिशा को लेकर किसी किस्म का संदेह बिल्कुल नहीं बचता है। पूंजीवाद खुद को वैश्विक स्तर पर लागू होने वाले सिस्टम के रूप में बताता है। लेकिन इसमें एक बड़ा अंतरविरोध है जैसे कि अंतरदेशीय आर्थिक स्वार्थों और राजनैतिक रूप से एक खास राष्ट्र राज्य के प्रति वचनबद्धता और ताज्जुब है कि यह इसे अजेय भी मानता है। फिर भी कुछ राज्य अपने को इस अंतरविरोध से उबरने की असफल कोशिश में दिखते हैं जबकि यह मूल तर्क का ही हिस्सा है। दुनिया के मौजूदा स्वरूप में अगर देखें तो एक खास पूंजीवादी राज्य मूल रूप से नष्ट करनेवाले साधनों का एकाधिकारी बन बैठा है। इस राज्य के लिए सबसे बड़ा लालच यह है कि उसका वर्चस्व पूरे जगत पर रहे और वह अपने को पूरी दुनिया को नियंत्रित करनेवाली सत्ता के रूप मे स्थापित होने के साथ यह दिमाग में भर दे कि विश्व अर्थव्यवस्था के लिए उसके द्वारा उठाया कदम अपरिहार्य है। मशहूर मार्क्सवादी दर्शनशास्त्री इस्तवान मेजारस ने जॉर्ज डब्ल्यू बुश के सत्ता ग्रहण के समय अपनी किताब सोशलिज्म ऑर बर्बरिज्म (?) में लिखते हैं कि इस ग्रह का कौन सा हिस्सा है जिसपर अभी कब्जा नहीं किया गया है..उसके आकार से हमें कुछ लेना देना नहीं है हो सकता है उससे कोई लाभ न हो। लेकिन बावजूद इसके कुछ प्रतिद्वंदियों की स्वतंत्र हरकत को हम नजरंदाज कर देते हैं लेकिन संपूर्णता में एक आर्थिक और सैन्य महाशक्ति की नजर उसपर बराबर है। अगर कुछ नहीं हुआ तो यह सर्वसत्तावादी उसे अपनी अक्रामक सैन्य शक्ति के जरिए सफाया भी कर सकता है। यह वैश्विक अराजकता एक अनजान खतरे के रूप में भी उभर रही है। इस क्रम में यह दो किस्म के प्रलय की ओर संकेत कर रही है। एक तो परमाणु उत्पादन, जिससे नाभकीय युद्ध के खतरे लगातार बढ़ रहे हैं और दूसरा है धरती का पर्यावरणीय खात्मा। बुश प्रशासन का परमाणु हथियारों को रोकने के लिए सीटीबीटी और धरती के बढ़ते तापमान के मुद्दे पर क्योटो प्रोटोकाल पर हस्ताक्षर से मुकर जाना इसका जीता जागता उदाहरण है। मई-जून 2005 में फॉरेन पॉलिसी के संस्करण में भूतपूर्व अमेरिकी रक्षामंत्री राबर्ट मैकनार्मा (केनेडी और जानसन के शासन के दौरान ) का एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था "Apocalypse Soon" (आपदा के मुखपर ) जिसमें वो कहते हैं कि मेरे सात साल के कार्यकाल से लेकर अब तक कभी भी संयुक्त राज्य अमेरिका ने "पहले प्रयोग न करने" की नीति पर रजामंदी नहीं जताई है। हम अभी भी एक व्यक्ति यानी राष्ट्रपति के इशारे के इंतजार पर परमाणु हमला करने के लिए तैयार हैं चाहे वो देश परमाणु हथियारों से लैस या न हो। जहां भी हमारा हित टकराएगा हम ऐसा करने से नहीं चुकेंगे। पूरा राष्ट्र हमारी पारंपरिक सैन्य ताकत में यकीन रखता है और वैश्विक ताकत के साथ परमाणु संपन्न देश की इस इच्छा को हम पूरा करने के लिए तैयार हैं। इनके मुताबिक पूरी दुनिया एक खतरनाक मुहाने पर बैठी है। धरती के बढ़ते तापमान के लिए जिम्मेदार कॉर्बन डाइऑक्साइड का किसी और देश के मुकाबले अमेरिका ज्यादा उत्पादन करता है (करीब विश्व के कुल उत्पादन का एक चौथाई)। यह पर्यावरण और धरती के बढ़ते तापमान के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। यह सिलसिला जारी रहा तो हम एक सभ्यता से हाथ धो सकते हैं। आर्थिक जड़ता या फिर गरीब अमीर देशों के बीच बढ़ती खाई और उनके ध्रुवीकरण, अमेरिकी आर्थिक वर्चस्व में सेंध या फिर परमाणु हमले की संभावना जैसा किसी वैश्विक मुद्दे के जन्म लेते ही अमेरिका खुद को चिल्ला चिल्लाकर एक संप्रभु राष्ट्र होने की घोषणा करने लगता है। परिणाम स्वरूप यह अंतरराष्ट्रीय अस्थिरता को बढ़ा देता है। यूरोपीय यूनियन और चीन की तरह दुनिया में कई और ताकतें सिर उठाने लगती हैं और ये ताकतें क्षेत्रीय और वैश्विक दोनों स्तर पर अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने लगी हैं। तीसरी दुनिया भी एक बार कमर कसना शुरू कर चुकी है। इस प्रसंग में हम ह्यूगो सावेज के नेतृत्व में चलने वाले वेनेजुएला के बोलेबेरियन क्रांति को सबसे पहले जगह देंगे। अमेरिका मध्यपूर्व और उसके तेल खजाने पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने की कोशिश में जुटा हुआ है। इराक में बढ़ते प्रतिरोध और कई विपरीत स्थितियों के मध्य अमेरिका आगबबूला हो उठा है। ऐसी स्थिति में उसने अपने नाभकीय हथियारों को फिर से तेल पिलाने के साथ ही वह उन सभी अंतराष्ट्रीय समझौतों को नकारने लगा है जहां ऐसे हथियारों पर रोक लगाने की बात कही गई है। नए देश खासकर उत्तरी कोरिया परमाणु क्लब में शामिल हो चुका है। आतंकी हमले की आशंका ने सम्राज्यवाद को तीसरी दुनिया के देशों में युद्ध का मौका दे रहा है। न्यूयार्क और लंदन जैसे शहर भी आतंकी हमले के डर में जी रहे हैं लिहाजा काम बहुत आसान हो गया है। लेकिन इतने बड़े पैमाने पर इस किस्म का ऐतिहासिक अंतरविरोध शायद पहली बार और खुले रूप में देखने को मिल रहा है। इसकी जड़ में देखें तो वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का फिर से धरती पर कब्जा करने की सनक वाले वर्चस्ववाद को नया सहारा मिल गया है। यह गठजोड़ की नई किस्म सम्राज्यवाद के इतिहास की सबसे खतरनाक मोड़ साबित होगी। आज अमेरिका सहित दुनिया के तमाम पूंजीवादी देश इस समय दुनिया को वैश्विक बर्बरतावाद की ओर ले जा रहे हैं। लेकिन यह हमेशा याद रखना चाहिए कि मानव इतिहास में कुछ भी अपरिहार्य नही है। ऐसे में एक और वैकल्पिक रास्ता बचता है जहां वैश्विक स्तर पर हम ऐसे समाज के लिए लड़ाई लड़ सकते हैं जो ज्यादा मानवीय होने के साथ वर्गरहित और लंबे समय बना रह सके। पारंपरिक रूप से ऐसे समाज को हम समाजवादी समाज कहते हैं। इस संघर्ष के लिए हमें सबसे पहले व्यवस्था की सबसे कमजोर कड़ी पर चोट करना चाहिए इसके बाद वैश्विक स्तर पर भी नंगे सम्राज्यवाद के खिलाफ एक प्रतिरोध का मोर्चा भी बनाना होगा। अनुवाद-दीपू राय

अपने ही घर मे मैं मेहमान हो गया हूँ...

इन पुरानी राहों से परेशान हो गया हूँ,अपने ही घर मे मैं मेहमान हो गया हूँ,
एक नई दुनिया, नई मंज़िलों की तलाश मे निकला था घर से,आज उन पुरानी राहों की तरह मैं भी वीरान हो गया हूँ,
एक पल को लगा कि आसान होगा भुलाना पुरानी बातों को,पर हर वक्त सताती इन यादों से परेशान हो गया हूँ,
हर राह पर खुले दरवाज़ों के साथ एक नया घर नज़र आता था,वक्त के साथ लोगों की बेरुखी देख हैरान हो गया हूँ,
सोचा था कि अपनो के लिए खुशियाँ खोजूँगा,पर उन बहते आँसूओं मे बस पल दो पल की मुस्कान हो गया हूँ,
एक पंछी की तरह बादलों को छूने की चाह रखता था,आज इन ऊँचाईयों मे आ कर मानो खाली आसमान हो गया हूँ,
लोग कहते हैं कि ऐसे जीने की भी आदत हो जाएगी,ऐसी ज़िन्दगी की तलाश मे मै खुद ही श्मशान हो गया हूँ,
इन आँखों के खालीपन से मैं परेशान हो गया हूँआज अपने ही घर मे मैं मेहमान हो गया हूँ

Saturday, September 8, 2007

लियोनार्दो द विंची ब्रश से नहीं अंगूठे से बनाता था चित्र

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एक नई शोध के बारे में जानकारी मिली है वो आपके साथ शेयर करना चाहता हूं। दुनिया के विख्यात चित्रकार लियोनार्दो द विंची के चित्रों में जो आकर्षण होता था उसका मुख्य कारणा था कि वो अपने चित्र बनाने के दौरान कभी ब्रश का इस्तेमाल नहीं करता था वरन वह रंगों को कैनवास पर फैलाने के लिए अपने अंगूठे को ही काम में लाता था। यही नहीं द विंची कभी रंगों को कभी पैलेट में नहीं मिलाता था। उसे जब रंगों को मिलाना होता था तब उसे वह कैनवास पर ही मिलाता था। यही कारण है कि उसके चित्रों में थ्री डी का प्रभाव मिलता था। यह अनूठा शोध इटली के साइन्टिस्टों ने काफी लंबे अरसे में पूरा किया। द विंची का एक प्रसिद्ध चित्र मोनालिसा भी इसी तकनीक से बनाया गया है।

Friday, September 7, 2007

हिन्दुस्तान के गंगेश मिस्र अमर उजाला नोएडा में आउटपुट एडिटर बने

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हिंदी पत्रकारिता में अचानक आए बदलाव वाकई चौंकाने वाले है। जिस तेजी से हिंदी का बाजार बढ़ता जा रहा है उससे लगता हे जल्द ही हिंदी को अपना मुकाम मिल जाएगा और उसके लिए चिंतित होने वाले लोगों की चिंता दूर हो जाएगी। बदलाव और उठा-पटक का दौर इस साल फिर शुरु हो चुका है। पहले दैनिक जागरण नोएडा के समाचार संपादक राजीव सिंह ने लुधियाना में दैनिक भास्कर ज्वायन किया और अब हिन्दुस्तान दिल्ली से लंबे समय से जुड़े रहने वाले समाचार संपादक गंगेश जी ने अमर उजाला नोएडा में आउटपुट एडिटर के रुप में जाने का फैसला किया है। आने वाले दो महीनों में कई और लोगों के इधर-उधर होने की संभावना है।

Sunday, September 2, 2007

एक छोटी सी भूल ने दंगा करा दिया

एक बार फिर प्रशासन की छोटी सी लापरवाही ने आगरा को दंगों की आग में झोंक कर रख दिया। २९ अगस्त की सुबह-सुबह शहर के सबसे व्यस्त एमजी रोड पर दो युवकों की ट्रक से कुचल कर मौत हो गई। बचकर भागने के प्रयास में चालक ने पैदल चल रहे दो और लोग कुचल दिए। ये सभी लोग शबे बरात से लौट रहे थे। मरने वाले सभी मुस्लिम थे। इस घटना से लोगों में आक्रोश होना स्वाभाविक था। इसकी सूचना पास के थाने में दी गई लेकिन पुलिस का वही ढीला रवैया रहा। वह समय रहते घटनास्थल पर आई ही नहीं। और जब तक पुलिस पहुंची तब तक लोगों का गुस्सा चरम पर पहुंच चुका था। भीड़ में असामाजिक तत्व भी घुस चुके थे। उन्होंने भीड़ को उकसाना शुरु कर दिया। इसके बाद भीड़ ने सड़क पर वाहनों कों रोक कर आग लगाना शुरु कर दिया। देखते ही देखते एक दर्जन से ज्यादा ट्रकों और दूसरे वाहनों को फूंक दिया गया। पुलिस इतनी कम संख्या में थी कि वह भीड़ का काबू पाने में असफल साबित हो रही थी। भीड़ का अगला निशाना घटना स्थल पर मौजूद पुलिस वाले बने। पुलिस कर्मी थाना छोड़कर भाग गए। भीड़ का अब तक सारा गुस्सा पुलिस और प्रशासन के खिलाफ था। पुलिस उपद्रवियों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठा पा रही थी। क्योंकि मरने वाले एक विधायक के रिश्तेदार थे। न तो तब तब पुलिस ने लाठीचार्ज किया और न कोई दूसरा तरीका ही भीड़ को हटाने के लिए किया। विधायक का प्रशासन पर दबाव था कि भीड़ के खिलाफ कोई कठोर कदम न उठाया जाय। पथराव से बचने को पुलिस सड़क के दूसरी ओर चली गई। इधर पुलिस की हालत यह थी कि उसके आंसू गैस के गोले और बंदूके बेकार साबित हो रही थी। अब तक मुस्लिम मोहल्ले से फायरिंग होने लगी। पुलिस को अपने बचाव का कोई तरीका नजर नहीं आ रहा था। भीड़ के गुस्से से बचने के लिए पुलिस ने सांप्रदायिकता का कार्ड खेला। पुलिस के उकसावे पर ही हिंदू मोहल्ले के लोग उसके साथ एकजुट हो गए। अब यहां के लंपट तत्वों ने पथराव करना शुरु कर दिया। इन तत्वों को पुलिस का पूरा संर‌क्षण था। देखते ही देखते हादसा सांप्रदायिक रुप लेने लगा। धर्म स्थलों के अलावा व्यापारिक प्रतिष्टानों को भी निशाना बनाया जाने लगा।लगभग तीन घंटे तक शहर आग में झुलसता रहा। इसके बाद ही प्रशासन सक्रिय हुआ। प्रशासन ने कर्फ्यू की घोषणा का को‌‌ई असर नहीं हुआ। भीड़ सड़कों पर ही रही पुलिस के लाठीचार्ज और गोली चलाने के बाद भीड़ हट सकी। इसके बाद शहर में शांति है। सबसे आश्वर्य इस बात का है कि किसी भी राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन का कोई सदस्य इसे रोकने को आगे नहीं आया। अलबत्ता शांति होने के बाद सब होड़ लेने जरुर आने लगे हैं। रक्षाबंधन के ठीक बाद आगरा ने देखा कि एक मामूली से सड़क हादसे को कैसे दंगे का रुप दिया जाता है।

परेवज साहब अब तो मान जाओ

बेनजीर भुटो और नवाज शरीफ ने पाकिस्तान लौटने की घोषणा करके एक बार फिर पाकिस्तानी शासनाध्य‌क्ष के लिए मश्किल खड़ी कर दी है। बेनजीर और नवाज के आने की घोषणा के बाद से ही पाकिस्तान में जिस तरह से उनके दल के लोग उत्साहित हैं उससे तो जाहिर है कि यदि उन्हें रोकने की कोशिश की गई तो कुछ भी हो सकता है। परवेज बार-बार अपनी नाकामी छुपाने को सबके सामने कहते फिर रहे हैं कि वो इन्हें देश में घुसने नहीं देंगे। मगर जिस तेजी से पाकिस्तान में उनकी खिलाफत बढ़ती जा रही है वो उनके लिए चिंतित करने वाला है। पिछले कुछ दिनों में देश में जिस तरह से हर ‌क्षेत्र में वो विफल हुए हैं वो उनके बारे में बताने को काफी है। ऐसे में उनके लिए बेहतर यही होगा कि वो अपना पद छोड़ दें और सम्मान से हट जाएं।