Friday, February 27, 2009

......काल्पनिक नहीं है राधा

भगवान श्रीकृष्ण की शाश्वत शक्ति स्वरूपा राधा अथवा राधिका को काल्पनिक निरूपित करने की अवधारणा के प्रतिपादकों में ऐसी भ्रांति है कि राधा नाम तो केवल कविताओं में है। हिंदी के भक्तिकालीन कवियों ने राधाकृष्ण पर एक से बढ़ कर एक उत्कृष्ट कविता लिखी है, जो हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। मगर इन कविताओं को सराहने वाले भी उक्त अवधारणा के प्रभाव में आकर राधा को काल्पनिक चरित्र ही मान बैठते हैं। इस अवधारणा के विरोध में पहला तर्क तो यही है कि इतने सारे कृष्णभक्त कवि, जिनमें सूरदास, मीराबाई, बिहारीलाल तथा रसखान प्रमुख हैं। एक ही साझे काल्पनिक चरित्र पर इतनी सारी कविताएं क्यों लिखते!
दरअसल, इस अवधारणा का आधार है:- श्रीकृष्ण के जीवन चरित से संबंधित प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ श्रीमद्भागवत महापुराण में राधा नाम का उल्लेख नहीं होना। किंवदंती है कि राधाजी ने श्रीमद्भागवत महापुराण के समकालीन रचनाकार महर्षि वेदव्यास से अनुरोध किया था कि वह इस ग्रंथ में उनका नामोल्लेख कहीं न करें और यह पूरी तरह से श्रीकृष्ण को समर्पित हो। इससे भी बड़ी बात यह है कि हमारा प्राचीन ज्ञान ज्यादातर गुरु-शिष्य परंपरा से श्रुति-स्मृति पद्धति से आगे बढ़ता रहा है। पुस्तकें तो बहुत बाद में आई। पहले तो श्रुति-स्मृति पद्धति ही ज्ञानांतरण की एक मात्र विधा थी। संचार क्रांति के वर्तमान कंप्यूटर युग में भी यह परंपरा सीमित आयाम में ही सही, बदस्तूर जारी है। विभिन्न गुरु-शिष्य समूहों के सुनने तथा उसे याद करने के बीच जो अंतर रह जाता है, उसके भी दृष्टांत हैं। कई प्राचीन ग्रंथों के विभिन्न संस्करणों में पाठांतर होना यही दर्शाता है। अनेक प्राचीन वास्तविक घटनाएं प्रसंग आज भी श्रुति-स्मृति विधा में ही जीवित है।
धार्मिक कथाओं में राधाजी के साथ ही उनकी आठ सखियों का भी उल्लेख आता है। इनके नाम है-ललिता, विशाखा, चित्रा, इंदुलेखा, चंपकलता, रंगदेवी, तुंगविद्या और सुदेवी। वृंदावन में इन सखियों को समर्पित प्रसिद्ध अष्टसखी मंदिर भी है। जब सखियां हैं तो राधाजी भी अवश्य होंगी, इसलिए यह सब मात्र कल्पना बिल्कुल नहीं हो सकता। भागवत में राधा नाम का प्रत्यक्ष उल्लेख भले ही न हो लेकिन परोक्ष रूप से जगह-जगह राधा नाम छुपा हुआ है। राधा नाम कम से कम एक भागवेत्तर प्राचीन रचना में अवश्य है। जिस प्रकार विभिन्न देवी-देवताओं के कवच पाठ होते हैं, उसी प्रकार राधाजी का भी कवच उपलब्ध है। यह कवच प्राचीन श्रीनारदपंचरात्र में है, जो यह सिद्ध करता है कि राधानाम भक्तिकालीन कवियों से बहुत पहले भी था।
दक्षिण के संत श्री विल्बमंगलाचार्य ने तो श्री गोविंददामोदर स्रोत जैसी राधाकृष्ण आराधना की उत्कृष्ट रचना में कई जगह राधा नाम का उल्लेख किया है। वृंदावन में रासलीला करते हुए जब भगवान अचानक अंतध्र्यान हो गए तो गोपियां व्याकुल होकर उन्हें खोजने लगीं। मार्ग में उन्हें श्रीकृष्ण के साथ ही एक ब्रजबाला के भी पदचिह्न दिखाई दिए। भागवत में कहा गया है-
अनया आराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वर:।
यन्नो विहाय गोविंद: प्रीतोयामनयद्रह:।।
अर्थात गोपियां आपस में कहती हैं- अवश्य ही सर्व शक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की यह आराधिका होगी, इसीलिए इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुंदर ने हमें छोड़ दिया है और इसे एकांत में ले गए हैं।
जाहिर है कि यह गोपी और कोई और नहीं बल्कि राधा ही थी। श्लोक के आराधितो शब्द में राधा का नाम भी छुपा हुआ है।
श्री नारदपंचरात्र में शिव-पार्वती संवाद के रूप में प्रस्तुत श्री राधा कवचम् के प्रारंभ में श्री राधिकायै नम: लिखा हुआ है। पहले श्लोक में देवी पार्वती भगवान शंकर से अनुरोध करती है:-
कैलास वासिन् भगवान् भक्तानुग्रहकारक। राधिका कवचं पुण्यं कथयस्व मम प्रभो।।
अर्थात हे कैलासवासी, भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हे प्रभो, श्री राधिका जी का पवित्र कवच मुझे सुनाइए।
वैसे श्रीमद् भागवत महापुराण के प्रारंभ में श्री राधाकृष्णाभ्यां नम: दिया गया है। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि व्यासजी ने राधा जी के अनुरोध का उल्लंघन करके वहां उनका नाम कैसे दे दिया।
इस संदर्भ में वृंदावन के श्री राधा वल्लभ मंदिर के आचार्य श्रीहित मोहित मराल गोस्वामी युवराज ने तर्क दिया कि व्यासजी ने राधा जी की शर्त कहीं नहीं तोड़ी है और ग्रंथ में सभी जगह उन्होंने राधा शब्द को परोक्ष रूप में ही दिया है। गोस्वामी ने कहा कि मूलत: तो ग्रंथ के प्रारंभ में केवल कृष्णाभयां नम: लिखा गया था और यह मान लिया गया था कि कृष्ण के नाम से पहले राधा का नाम छुपा हुआ है।
चूंकि व्याकरण की दृष्टि से कृष्णाभ्यां सही नहीं था, अत: बाद के संस्करणों में राधाकृष्णाभ्यां कर दिया गया। चतुर्थ विभक्ति द्विवचन अकेले कृष्ण के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकता था।
व्याकरणाचार्य यह भूल गए कि ब्यास जी तो उसमें राधा नाम को छुपाए बैठे हैं, जिसका प्रकटत: उल्ल्ेाख करना राधाजी की शर्त का उल्लंघन होता। छुपे राधा शब्द को मिला कर तो द्विवचन बन ही जाता है। प्रसंगवश महान अंग्रेजी क वि नाटककार विलियम शेक्सपियर ने एक जगह दि मोस्ट अनकाइंडेस्ट-अधिकतम क्रूरतम विशेषण का प्रयोग किया है, जो व्याकरण की दृष्टि से गलत है। यहां क्रूरता की अधिकता दर्शाने के लिए जान बूझकर यह प्रयोग किया गया है।
व्यासजी और शेक्सपियर के लेखन में संशोधन की गुंजाइश कहां है। भागवत में महारास के प्रसंग का यह श्लोक भी विचारणीय है:-
तत्रारभत गोविंदो रासक्रीड़ामनुव्रतै ।
स्त्रीरत्नैरन्वित: प्रीतैरन्योन्याबद्ध बाहुभि:।।
अर्थात भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियां एक दूसरे की बांह में बांह डाले खड़ी थीं। उन स्त्री रत्नों के साथ यमुना जी के पुलिन पर भगवान ने अपनी रसमर्या रासक्रीड़ा प्रारंभ की। स्पष्ट है कि सामान्य गोपियों से पृथक एक गोपी भगवान की प्रेयसी थी। वह राधाजी के अलावा और कौन हो सकती है।
यह प्रसिद्ध है कि राधा जी के पिता गोप प्रमुख वृषभानु थे और वह वृंदावन के निकट बरसाना के रहने वाले थे। संभव है कि श्री नारदपंचरात्र राधाकृष्ण के समय से पहले की रचना हो। तब प्रश्न यह पैदा होगा कि किसी के जन्म से पहले उसके नाम का उल्लेख कैसे हो सकता है। इसे समझने के लिए गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस का सहारा लेना होगा।

गोस्वामी जी इस महाकाव्य में शिव-पार्वती विवाह के अवसर पर गणेश वंदना का उल्लेख करते हैं:-
मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जिय जानि।।
अर्थात् मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वती जी ने गणेशजी का पूजन किया। देवताओं को अनादि समझते हुए कोई यह शंका न करें कि गणेश जी तो शिव-पार्वती पुत्र है, इसलिए उनके विवाह से पहले ही गणेश जी का अस्तित्व कैसे हो सकता है। इसी तरह राधाजी भी अनादि सनातन तथा शाश्वत है। वृषभानु कुमारी के रूप में उनके अवतरण से बहुत पहले अनुराधा नक्षत्र का नामकरण भी शायद उन्हीं के नाम पर हो चुका था।
संत श्री विल्बमंगलाचार्य हिंदी के भक्तिकालीन कवियों के समकालीन जरूर थे, लेकिन यह मानने का कोई आधार नहीं है कि उन्होंने इन कवियों से प्रेरणा लेकर राधा नाम का उल्लेख किया था। ऐसे कई प्रमाण हैं, जो सिद्ध करते हैं कि राधा रानी कोई काल्पनिक चरित्र नहीं बल्कि श्रीकृष्ण की शाश्वत शक्तिस्वरूपा और आल्हादिनी शक्ति हैं
पहाड़ी बाबा से साभार

पर माँ कभी बीमार नही होती

क्या पता सोती भी है या नही,
जब मैं सोता,
वह जगी होती,
जब मैं जगता,
वहझाडू - पानी -सफाई कर,
फूंकनी ले,
चुल्हे के पडौस में बैठी होती,
कभी घट्टी पर,
कभी गौशाला में,
गुदडियों को सुई चुभोती,
ढिबरी में तेल भरउजाला करती,
दिन भर कुछ ना कुछ करती ही रहती,
मुझे बुखार आता,
दद्दू खटियां पर पडे रहते,
बाबा खांसते- खांसते दुहरा जाते....पर,
पर माँ कभी बीमार नही होती फ़िर भी.........फिर भी ना जाने जल्दी .....मर क्यूं जाती है ?