Saturday, May 15, 2010

मेरी माँ

ब्रह्मा यद्यपि सृष्टि रचयिता, उससे, बढ़ कर मेरी माँ
सृष्टा के आसन पर बैठी, मुझको घढ़कर मेरी माँ
बेटे की माँ बन जाने का, गौरव तुमने पाया था
हुई घोषणा थाल बजाते, छत पर छढ़कर मेरी माँ
मैं तो तिर्यक योनी में, घुटनों के बल चलता था
गिरते को हर बार उठती, हाथ पकरकर मेरी माँ
अमृत सा पय पण कराती, आँचल की रख ओट मुझे
बड़ा हुआ तो खूब खिलाती, हरदम लड़कर मेरी माँ
किये उपद्रव तोडा फोड़ी,उपालम्ब भी खूब सहे
किन्तु नहीं अभिशापित करती, कभी बिगड़कर मेरी माँ
लगती तुम ममता की सरिता, मंथर गति से जो बहती
कभी बनी पाषाण शिला सम, आगे अड़कर मेरी माँ
तुम मेरी पैगेम्बर जननी, तुम ही पीर ओलिया हो
शत शत शत प्रणाम अर्पित है, चरणों पड़ कर मेरी माँ

इतना दूर चला हूँ , फिर भी मंजिल नहीं मिली

केवल दिखलाने को सारे, कात रहे तकली
मुस्काने जो मिलीं हजारों, ज्यादातर नकली
घुप्प अँधेरा था पर, कोइ शम्मा नहीं जली
इतना दूर चला हूँ , फिर भी मंजिल नहीं मिली
सपनो की बन्दनवारों ने, मंगलाचरण किया

धूप खिली तो मृगत्रशना ने, सब कुछ हरण किया
आदर्शों की जुजबन्दी से, पोथी गयी सिली
इतना दूर चला हूँ , फिर भी मंजिल नहीं मिली
बियाबान में थकन उदासी, ओर बिछावन घास
लेकिन विधना संग मैं मेरे, इसका था आभास
मेली चादर फटी हुई सी, वो भी नहीं सिली
इतना दूर चला हूँ, फिर भी मंजिल नहीं मिली

अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर, ढूँढ रहे थे नैन
जिन बिरवों के नीचे बैठा, वो खुद थे बैचेन
कथनी करनी के अंतर मैं,मन की नहीं चली
इतना दूर चला हूँ , फिर भी मंजिल नहीं मिली

कहा पवन के इक झोकें ने, भर मेरी बाहें
पगडंडी को छोड़ बावले , निर्मित कर राहें
विश्वासों की चट्टानों से राह नई निकली
इतना दूर चला हूँ, फिर भी मंजिल नहीं मिली

केवल दिखलाने को सारे, कात रहे तकली
मुस्काने जो मिलीं हजारों, ज्यादातर नकली
घुप्प अँधेरा था पर, कोइ शम्मा नहीं जली
इतना दूर चला हूँ , फिर भी मंजिल नहीं मिली

किशोर पारीक"किशोर"

बबुआ ! कन्या हो या वोट

भारतीय संस्कृति में दान को बड़े विराट अर्थॊं में स्वीकारा गया है। कन्यादान और मतदान दोनों में अनेक समानताएं हैं। कन्यादान का दायरा सीमित होता है वहीं मतदान के दायरे में सारा देश आ जाता है । कन्यादान एक मांगलिक उत्सव है.मतदान उससे भी बड़ा मांगलिक उत्सव है। कन्यादान करना एक उत्तरदायित्व है...मतदान करना बड़ा उत्तरदायित्व है। कन्यादान का उत्तरदायित्व पूर्ण हो जाने पर मनको अपार शान्ति मिलती है। मतदान के उत्तरदायित्व पूर्ण हो जाने पर भी आप अमन-शान्ति चाहते हैं। कन्यादान के लिए लोग दर-दर भटक कर योग्य वर की तलाश करते हैं परन्तु मतदान के लिए क्या शीलवान (ईमानदार) पात्र की तलाश करते हैं...? यह एक बड़ा प्रश्न है इसका उत्तर आप अपने सीने में टटोलिए अथवा इस लोकगीत में खोजिए!


बबुआ ! कन्या हो या वोट ।
दोनों की गति एक है बबुआ ! दोनों गिरे कचोट ।।
õ
कन्या वरै सो पति कहलावै, वोट वरै सो नेता,
ये अपने ससुरे को दुहते, वो जनता को चोट ।।
õ
ये ढूंढें सुन्दर घर - बेटी, वे ताकें मतपेटी,
ये भी अपनी गोट फसावै, वो भी अपनी गोट ।।
õ
ये सेज भी बिछावै अपनी, वो भी सेज बिछावै,
इतै बिछै नित कथरी-गुदड़ी उतै बिछै नित नोट ।।
õ
कन्यादानी हर दिन रोवे, मतदानी भी रोवे,
वर में हों जो भरे कुलक्षण, नेता में हों खोट ।।
õ
कन्या हेतु भला वर ढूंढो, वोट हेतु भल नेता,
करना पड़े मगज में चाहे जितना घोटमघोट ।।