Wednesday, May 7, 2008

अक्षय तृतीया
पिछले वर्ष अक्षय तृतीया के दौरान 90 टन सोने की बिक्री हुई थी. अक्षय तृ्तीया के दिन आप अपना व्यवसाय की शुरूआत भी कर सकते हैं. किसी मकान के बनाने के लिये नींव की खुदाई के लिये भी यह शुभदिन माना जाता है. चूंकि इस दिन विवाहों के लिये किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती इसलिये इस दिन राजस्थान में भारी संख्या मे बाल विवाह करने की कु-रीति भी फैली हुई है.
अक्षय तृतीया (Akshaya Tritiya) को सामन्यतया अखतीज के नाम से भी पुकारा जाता है. अक्षय का अर्थ है जो कभी भी खत्म नहीं होता. हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार यह दिन सौभाग्य और सफलता की सूचक है. इस दिन को सर्वसिद्धि मुहूर्त दिन भी कहये है क्योंकि इस दिन शुभकाम के लिये पंचांग देखने की जरूरत नहीं होती. यदि आप कुछ अचल सम्पत्ति, सोना, चांदी या दीर्घावधि के लिये कुछ खरीद करने जा रहे हैं तो यह दिन इस तरह की खरीददारी के लिये सर्वाधिक उपयुक्त है. हीरा या गहने भी इस शुभदिन पर खरीदे जा सकते हैं. इस दिन सोना की बहुत अधिक मात्र में खरीदा जाता है. पिछले वर्ष अक्षय तृतीया के दौरान 90 टन सोने की बिक्री हुई थी. अक्षय तृ्तीया के दिन आप अपना व्यवसाय की शुरूआत भी कर सकते हैं. किसी मकान के बनाने के लिये नींव की खुदाई के लिये भी यह शुभदिन माना जाता है. चूंकि इस दिन विवाहों के लिये किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती इसलिये इस दिन राजस्थान में भारी संख्या मे बाल विवाह करने की कु-रीति भी फैली हुई है.
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार त्रेता युग की शुरुआत इसी दिन से हुई है और अमृत जल वाली पवित्र नदी गंगा भी इसी दिन धरती पर आई है.
अक्षय तृ्तीया विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम का जन्मदिन के रूप में मनायी जाती है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य और चन्द्रमा इस दिन उच्चस्थ स्थिति में होते हैं.
इस दिन उपवास रखते हैं और जौ, सत्तू, अन्न तथा चावल से भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. इस दिन सुबह ब्रम्ह मुहूर्त में उठकर गंगा या किसी नदी अथवा समुद्र में स्नान करें. विष्णु की मूर्ति को स्नान कराकर तुलसी पत्र चढ़ायें. इस दिन को नवन्न पर्व भी कहते हैं. इस दिन बरतन, पात्र, मिष्ठान्न, तरबूजा, खरबूजा दूध दही चावल का दान दें.
इस वर्ष 7 एवं 8 मई को अक्षय तृतीया है.

थम गए हाथ, लेकिन सुनाई देती रहेगी थाप

कदम बचपन में जब सामान्यत: बच्चे झुनझुने की आवाज सुनते हैं, पं. किशन महाराज के कानों में तबले की थाप सुनाई पड़ती थी। बचपन से लेकर कोई 85 बरस की उम्र तक जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा, तबला उनके साथ रहा। आज जब वे नहीं हैं, बार-बार उनके हाथों से तबले पर पड़ती थाप कायनात में रह-रहकर गूंजती सुनाई दे रही है और शायद तब तक गूंजती रहेगी जब तक कि तबला और संगीत के प्रेमी इस दुनिया में रहेंगे।
पं. किशन महाराज का जाना एक पूरे युग के अंत जैसा है। हालांकि यह बात हर बड़े आदमी के जाने पर कही, लिखी जाती है लेकिन पं. किशन महाराज के बारे में, खासकर तबले को लेकर यह जितनी ईमानदार उक्ति है, उतनी शायद दूसरों के संदर्भ में नहीं है। वजह बहुत साफ है। वह यह कि पं. किशन महाराज का जन्म न केवल तबले के वातावरण में हुआ, बल्कि संस्कारों में भी तबले की ताल हरपल, हरकदम साथ चली। १९२३ की श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को बनारस के कबीर चौरा में जन्मे पं. किशन महाराज का जन्म एक संयोग ही था कि वे नृत्य और संगीत के देवता श्रीकृष्ण के जन्मदिन के दिन इस धरती पर आए।
पिता हरि महाराज और ताऊ विख्यात तबला वादक पं. कंठे महाराज ने उन्हें प्रारंभिक शिक्षा दी। कंठे महाराज तो उनकी प्रतिभा से इतने मोहित थे कि उन्होंने किशन महाराज को गोद ही रख लिया। बस फिर क्या था। बीच में तबले की ताल थी और महागुरु के सान्निध्य में भविष्य का महान तबलावादक गढ़ा जा रहा था। बनारस की भूमि, गंगा की तरंगों और सदगुरुओं के सान्निध्य का ही प्रताप था कि देखते ही देखते पं. किशन महाराज ने तबले पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उनके तबले ने संगीत के क्षेत्र में कला और प्रतिभा के जो इंद्रधनुष बिखेरे, उसकी रंगत वे ही जानते हैं जिन्होंने उन्हें बजाते हुए देखा और सुना है। अपने पूर्ववर्तियों और समकालीनों से उनका तबला इस मायने में अलग और बेजोड़ रहा कि आमतौर पर वादक स्त्रीप्रधान तबला बजाते थे, पं. किशन महाराज ने बनारस घराने का प्रवर्तन कर अपने व्यक्तित्व के अनुरुप पुरुषप्रधान तबले को स्थापित किया। लयकारी और तिहाई के तो वे मानो जादूगर ही थे।
उनका तबला शुरू करना और समापन करना किसी सूर्योदय और सूर्यास्त से कमतर नहीं रहा। यही वजह थी कि उनके बाद जितने भी तबलावादक हुए, ज्यादातर ने उनके ढंग को अपनाया और दुनिया में तबले का नाम स्थापित किया। किशन महाराज का विराट व्यक्तित्व ही था कि उन्होंने दूसरे नंबर के वाद्य माने जाने वाले तबले को मुख्य वाद्य के रूप में इस तरह स्थापित किया कि कलाकारों के एकल तबला वादन संगीत सभाओं में न सिर्फ स्वीकारे गए बल्कि आगे चलकर प्राय: अनिवार्य जैसे हो गए। अपने १क्क्क् से ज्यादा शिष्यों और देश-विदेश में दिए दर्जनों एकल तबला वादन कार्यक्रमों के मार्फत पं. किशन महाराज ने सिर्फ अपने बूते तबले को मान और धन दोनों दिलाने में वह कामयाबी हासिल की, जो शहनाई के मामले में उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने पाई थी। तबले के प्रति उनके अगाध प्रेम और निष्ठा का इससे बड़ा प्रमाण आज की दुनिया में क्या होगा कि उन्होंने 65-70 साल तक अपने घर कई शिष्यों को अपने खर्चे पर रखा और उन्हें तबले के गुर सिखाए। इसीलिए गुरुओं की पंक्ति में किशन महाराज को अपने शिष्यों से जीते-जी जो मान मिला, वह सामान्यत: अन्य कलाकारों को नहीं मिल पाया। पं. किशन महाराज न सिर्फ तबले के जादूगर थे बल्कि महान कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, पहलवान, शिकारी, इक्का चलाने के मास्टर और न जाने कितनी विधाओं में दखल रखने वाले हुए।
कहते हैं बनारस का साहित्य समाज उन्हें अपनी बिरादरी में मानता था, तो संगीतकार सिर्फ अपना मानते थे। उनकी मशहूर कविता ‘सत्य है तो सत्य है, राम नाम सत्य है’ सुनकर संत मोरारी बापू ने उठकर उन्हें गले लगा लिया था। तबले में ओज और तेज के प्रवर्तक पं. किशन महाराज का उस्ताद जाकिर हुसैन इतना मान करते रहे कि वे कभी उनके बराबर के आसन पर नहीं बैठे। 6 फीट का कद, गोरा रंग, तबले सी प्रशस्त और तालभरी आंखें उनके व्यक्तित्व को ग्रीक देवताओं की भांति प्रकट करती रहीं। सच तो यह है कि बगैर स्कूली शिक्षा के तबले के माध्यम से पूरी दुनिया में भारत का नाम गौरवान्वित करने वाले इस ऋषि ने जीवनभर संगीत को सिर्फ दिया ही दिया, लिया शायद कुछ नहीं। यहां तक कि इसी साल 3 मार्च को वे एक कार्यक्रम में तबला बजाने गए थे और वहां बेहोशी के बाद फिर कदाचित उन्होंने तबले का स्पर्श नहीं किया। यानी देहांत के कोई दो महीने पहले तक तबला उनके साथ था। आज भले किशन महाराज नहीं हैं, लेकिन जब भी तबले की बात चलेगी, उनके नाम के बगैर पूरी न हो सकेगी। कबीर का मशहूर दोहा है -
हरिरस पीया जाणिए, कबहूं न जाए खुमार, मेंमता घूमत रहत, नाही तन की सार।
बस कुछ ऐसा ही रहा है पं. किशन महाराज और तबले का साथ, उन्होंने ऐसा रस पिया जिसका खुमार कभी न लौटे।

डॉ. विवेक चौरसिया

लंबी टांगें, मतलब अच्छी याददाश्त
वॉशिंगटन : लंबी टांगों वाली महिलाओं को खुश होने की एक और वजह मिल गई है, उन्हें अल्टशाइमर्ज होने की आशंका कम होती है। जॉन हॉपकिंग यूनिवर्सिटी, बाल्टीमोर के रिसर्चर्स के मुताबिक महिलाओं में टांगों की लंबाई के हर एक्स्ट्रा इंच के साथ इस रोग की आशंका में 16 फीसदी की कमी आती है। अल्टशाइमर्ज एक असाध्य रोग है जिसमें याददाश्त खोने के साथ-साथ दूसरी मानसिक बीमारियों के लक्षण उभरने लगते हैं। इस समय दुनिया भर में करीब दो करोड़ 40 लाख लोग इस रोग के शिकार हैं। इस रोग की शुरुआत में मामूली भूलने की आदतें सामने आती है। आमतौर पर इसे बढ़ती उम्र या तनाव का नतीजा समझा जाता है। बाद में भ्रम, गुस्सा, मूड में उतार-चढ़ाव, बोलने में दिक्कत और बड़े स्तर पर भूलने के लक्षण सामने आते हैं। अमेरिकी रिसर्चर्स ने 2,798 पुरुषों और महिलाओं को अपनी स्टडी में शामिल किया था। इसके नतीजों में सामने आया कि लंबी बांहों वाली महिलाओं की तुलना में छोटी बांहों वाली महिलाओं को अल्टशाइमर्ज होने की आशंका 50 फीसदी बढ़ जाती है। न्यूरॉलजी जर्नल में छपी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पुरुषों में केवल टांगों की लंबाई ही मायने रखती है। उनकी टांगों की हर एक एक्स्ट्रा इंच की लंबाई पर अल्टशाइमर्ज की आशंका में छह फीसदी की कमी आती है। रिसर्चर्स का मानना है कि छोटे हाथ-पैरों का संबंध बचपन में पोषण के अभाव से होता है। गौरतलब है कि पोषण का दिमाग के विकास में अहम रोल होता है। टीम लीडर टीना हुआंग का कहना है 'शरीर के अंगों की लंबाई को बचपन में मिलने वाले पोषण का संकेतक खास माना जाता है।'
तुम मुझको पहचान न पाए
मैं राधा हूं, मैं सीता हूं, तुम मुझको पहचान न पाए,
मैं मुक्ता हूं, मैं मीरा हूं, तुम मुझको पहचान न पाए.
मैं झांसी हूं, मैं शक्ति हूं, तुम मुझको पहचान न पाए,
मैं देवी हूं, मैं भक्ति हूं, तुम मुझको पहचान न पाए.
मैं माता हूं, मैं बीवी हूं, तुम मुझको पहचान न पाए,
मैं बहना हूं, मैं बेटी हूं, तुम मुझको पहचान न पाए.
मेरी कोख से, तुम जनमे हो, तुम मुझको पहचान न पाए,
मेरे प्यार से, तुम महके हो, तुम मुझको पहचान न पाए.
मैं सुंदरता, की सूरत हूं, तुम मुझको पहचान न पाए,
मैं ममता की, इक मूरत हूं, तुम मुझको पहचान न पाए.
मैं चाहूं तो, तुझे बना दूं, तुम मुझको पहचान न पाए,
मैं चाहूं तो, तुझे मिटा दूं, तुम मुझको पहचान न पाए.
मैं चाहूं तो, घर सुंदर है, तुम मुझको पहचान न पाए,
मैं चाहूं तो, घर मंदिर है, तुम मुझको पहचान न पाए.
मुझसे ही ये, जग उन्नत है, तुम मुझको पहचान न पाए,
मुझसे ही ये, जग जन्नत है, तुम मुझको पहचान न पाए.
मैं रहमत हूं, मैं उल्फत हूं, तुम मुझको पहचान न पाए,
मैं कुदरत की, इक नेहमत हूं, तुम मुझको पहचान न पाए.
मुझको रिशियों, ने पूजा है, तुम मुझको पहचान न पाए,
मुझको मुनियों, ने पूजा है, तुम मुझको पहचान न पाए.
मैं ही प्रभुका, आधा अंग हूं, तुम मुझको पहचान न पाए,
मैं तो प्रभुके, सदा संग हूं, तुम मुझको पहचान न पाए.
अशोक कुमार वशिष्ठ