Thursday, January 13, 2011

हम लोग ज़रा देर से बाज़ार में आये

उम्मीद से कम चश्म-ए-खरीदार में आये
हम लोग ज़रा देर से बाज़ार में आये

सभी को ग़म है समंदर के खुश्क होने का
कि खेल ख़त्म हुआ कश्तियाँ डुबोने का

न जिसकी शक्ल ही कोई न जिसका नाम ही कोई
एक ऎसी शक्ल का क्यूँ हमें अज़ल से इंतज़ार है

लोग सर फोड़ कर भी देख चुके
ग़म की दीवार टूटती ही नहीं

फिर कहीं ख्वाब-ओ-हकीक़त का तसादुम होगा
फिर कोई मंजिल-ए-बेनाम बुलाती है हमें

इस नतीजे पे पोहंचते हैं सभी आखिर में
हासिल-ए-सैर-ए-जहां कुछ नहीं हैरानी है

मरकज़-ए-दीदा-ओ-दिल तेरा तसव्वुर था कभी
आज इस बात पे कितनी हँसी आती है हमें

शहरयार

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