Tuesday, January 4, 2011

आज भी कुछ शेष...

ह्रदय के दर्पन के बिख्ररे टुकडो को,
समेटने मे बीत जाते है युग कई
फिर भी, कही रह जाता है
कोई एक छोट सा टुकडा,
जो उम्र के अन्तिम छोर तक
चुभता रहता है...
आखो के अश्रुधारो को सुखने मे
लग जाते है साल कई
फिर भी कही एक मोती आसू का
छिपा होता है पलक की
कोठरी के भीतर
जो टीस पैदा करता रहता है
और आभास कराता रहता है की,
आज भी कुछ शेष...

साभार हिन्दी काव्य

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