Friday, November 20, 2009

मैं और मेरी क़िताबें अक‍सर ये बातें करते हैं

मैं और मेरी किताबें अकसर ये बातें करते हैं- किसी की ज़ुबान से जब ये बात निकली हो, तो यकीनन बहुत गहरा अर्थ रहा होगा इसके पीछे| वो कोई भी बात 'यूं ही' तो नहीं कह देता|
और इसका अर्थ तब ज़ाहिर होना शुरु हुआ जब उससे किताबें सुनना शुरु की| जीवन में किताबें तो बहुत पढ़ी हैं, जिनको पढ़ने के बाद भी ज़हन में खयाल रह जाता था कि पता नहीं ठीक से पढ़ी या नहीं| क्योंकि कई बार हम उस जगह नहीं पहुंच पाते जहां पहुंचकर लेखक ने लिखा होता है| लेकिन किताब को यदि उसके लेखक की ज़ुबान से सुनने को मिलें तो लगता है किताब को पढ़ा नहीं जिया है|

और उसकी ज़ुबान से किसी किताब को सुनने के मायने यही है कि उसके लेखक द्वारा सुनी जा रही है| फिर चाहे वह अमृता की 'तेरहवां सूरज' हो, चाहे दुष्यंत कुमार की काव्य नाटिका 'एक कंठ विषपायी' हो या फिर बब्बा (ओशो) के कहे हुए वचन|

अमृता की 'तेरहवां सूरज' और 'उनचास दिन' सुनते हुए तो मैं खुद अमृता हो गई थी| 'तेरहवां सूरज' का दूसरा भाग है 'उनचास दिन' और उसको सुनते हुए खयाल आया था कि अब उसके तीसरे भाग को लिखने का समय आ गया है| ऐसी अनहोनी घटना तभी घट सकती है जब आप के कानों में पड़ने वाली आवाज़ लिखने वाले की ही हो तभी तो आप लेखक में इतने समाहित हो जाते हैं कि उसी की तरह सोचने लगते हैं|

कवि नीरज द्वारा लिखा श्रंगार गीत जब पढ़ा तो लगा, नहीं!!! यह मेरे तरह की कविता नहीं है, मन नहीं लगा उसको पढ़ने में, लेकिन उसी श्रंगार गीत को जब उसके मुंह से सुना तो लगा जैसे कवि नीरज ने वो गीत हमारे लिए ही लिखा है| उसका एक-एक शब्द जैसे हमारी पहली मुलाकात को वर्णित कर रहा था| कई महिनों से उसे सिर्फ़ एक आवाज़ के रुप में जानती थी, उस व्यक्ति को पहली बार साक्षात रुप में देखना किसी स्वप्न के सच हो जाने जैसा ही था| और उस पहली मुलाकात के लिए किसी कवि ने पहले से ही कोई कविता रच दी हो हमारे लिए, तो कोई अचंभा नहीं है| जो व्यक्ति किताबों से बातें करता हो वे किताबें और किताबों के रचयिता इतना तो कर ही सकते हैं उसके लिए|


और उन अद्भुत क्षणॉं को शब्दों में पिरोना तो और भी मुश्किल है मेरे लिए जब वो बब्बा(ओशो) की किताबों को सुनाता हैं| बब्बा ने कभी कुछ लिखा नहीं सिर्फ़ बोला है| वह राइटर नहीं ओरेटर है| जब किसी लेखक की लिखी हुई बातों को वो उसी अंदाज़ और अर्थों के साथ सुनाता हो तो किसी की कहीं हुई बातों को उन्हीं के अर्थों में समझाने का जादू सिर्फ़ उसी के बस का है| और वो बातें जब बब्बा द्वारा कही गई हो तो लगता है कि उनको सुनने के लिए स्वयं बब्बा भी आए हैं| उसका कारण भी है, जिस कमरे में जिस कुर्सी पर बैठ कर वो बब्बा को पढ़ता है, कई बरस पहले उसी जगह बब्बा भी बैठा करते थे| वह उनकी बैठक हुआ करती थी|


उसकी ज़ुबान से बब्बा बोल रहे हैं या बब्बा उसकी ज़ुबान से बातों को दोहरा रहे हैं या बब्बा खुद वहां आ कर खुद को सुन रहे हैं कोई नहीं जानता, कोई समझ ही नहीं सकता| ये अद्भुत क्षण, पल, समय जो गुज़रता है वो समझने के लिए नहीं अनुभव करने के लिए होता है| बब्बा को पढ़ते समय उसके शरीर के चारों ओर मुझे एक दिव्य प्रकाश दिखाई देता है| मनुष्य के आसपास बनने वाले 'ऑरा' को देखा जा सकता है लेकिन जो ऑरा, जो प्रकाशवान गोला बुद्ध्, महावीर या हमारे देवी देवताओं के सिर के पीछे हम उनके चित्रों में देखते हैं, वह प्रकाशमान दिव्य गोला मुझे उसके सिर के पीछे भी दिखाई देता है|
ब्लॉग "नायिका" से साभार

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