थम गए हाथ, लेकिन सुनाई देती रहेगी थाप
कदम बचपन में जब सामान्यत: बच्चे झुनझुने की आवाज सुनते हैं, पं. किशन महाराज के कानों में तबले की थाप सुनाई पड़ती थी। बचपन से लेकर कोई 85 बरस की उम्र तक जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा, तबला उनके साथ रहा। आज जब वे नहीं हैं, बार-बार उनके हाथों से तबले पर पड़ती थाप कायनात में रह-रहकर गूंजती सुनाई दे रही है और शायद तब तक गूंजती रहेगी जब तक कि तबला और संगीत के प्रेमी इस दुनिया में रहेंगे।
पं. किशन महाराज का जाना एक पूरे युग के अंत जैसा है। हालांकि यह बात हर बड़े आदमी के जाने पर कही, लिखी जाती है लेकिन पं. किशन महाराज के बारे में, खासकर तबले को लेकर यह जितनी ईमानदार उक्ति है, उतनी शायद दूसरों के संदर्भ में नहीं है। वजह बहुत साफ है। वह यह कि पं. किशन महाराज का जन्म न केवल तबले के वातावरण में हुआ, बल्कि संस्कारों में भी तबले की ताल हरपल, हरकदम साथ चली। १९२३ की श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को बनारस के कबीर चौरा में जन्मे पं. किशन महाराज का जन्म एक संयोग ही था कि वे नृत्य और संगीत के देवता श्रीकृष्ण के जन्मदिन के दिन इस धरती पर आए।
पिता हरि महाराज और ताऊ विख्यात तबला वादक पं. कंठे महाराज ने उन्हें प्रारंभिक शिक्षा दी। कंठे महाराज तो उनकी प्रतिभा से इतने मोहित थे कि उन्होंने किशन महाराज को गोद ही रख लिया। बस फिर क्या था। बीच में तबले की ताल थी और महागुरु के सान्निध्य में भविष्य का महान तबलावादक गढ़ा जा रहा था। बनारस की भूमि, गंगा की तरंगों और सदगुरुओं के सान्निध्य का ही प्रताप था कि देखते ही देखते पं. किशन महाराज ने तबले पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उनके तबले ने संगीत के क्षेत्र में कला और प्रतिभा के जो इंद्रधनुष बिखेरे, उसकी रंगत वे ही जानते हैं जिन्होंने उन्हें बजाते हुए देखा और सुना है। अपने पूर्ववर्तियों और समकालीनों से उनका तबला इस मायने में अलग और बेजोड़ रहा कि आमतौर पर वादक स्त्रीप्रधान तबला बजाते थे, पं. किशन महाराज ने बनारस घराने का प्रवर्तन कर अपने व्यक्तित्व के अनुरुप पुरुषप्रधान तबले को स्थापित किया। लयकारी और तिहाई के तो वे मानो जादूगर ही थे।
उनका तबला शुरू करना और समापन करना किसी सूर्योदय और सूर्यास्त से कमतर नहीं रहा। यही वजह थी कि उनके बाद जितने भी तबलावादक हुए, ज्यादातर ने उनके ढंग को अपनाया और दुनिया में तबले का नाम स्थापित किया। किशन महाराज का विराट व्यक्तित्व ही था कि उन्होंने दूसरे नंबर के वाद्य माने जाने वाले तबले को मुख्य वाद्य के रूप में इस तरह स्थापित किया कि कलाकारों के एकल तबला वादन संगीत सभाओं में न सिर्फ स्वीकारे गए बल्कि आगे चलकर प्राय: अनिवार्य जैसे हो गए। अपने १क्क्क् से ज्यादा शिष्यों और देश-विदेश में दिए दर्जनों एकल तबला वादन कार्यक्रमों के मार्फत पं. किशन महाराज ने सिर्फ अपने बूते तबले को मान और धन दोनों दिलाने में वह कामयाबी हासिल की, जो शहनाई के मामले में उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने पाई थी। तबले के प्रति उनके अगाध प्रेम और निष्ठा का इससे बड़ा प्रमाण आज की दुनिया में क्या होगा कि उन्होंने 65-70 साल तक अपने घर कई शिष्यों को अपने खर्चे पर रखा और उन्हें तबले के गुर सिखाए। इसीलिए गुरुओं की पंक्ति में किशन महाराज को अपने शिष्यों से जीते-जी जो मान मिला, वह सामान्यत: अन्य कलाकारों को नहीं मिल पाया। पं. किशन महाराज न सिर्फ तबले के जादूगर थे बल्कि महान कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, पहलवान, शिकारी, इक्का चलाने के मास्टर और न जाने कितनी विधाओं में दखल रखने वाले हुए।
कहते हैं बनारस का साहित्य समाज उन्हें अपनी बिरादरी में मानता था, तो संगीतकार सिर्फ अपना मानते थे। उनकी मशहूर कविता ‘सत्य है तो सत्य है, राम नाम सत्य है’ सुनकर संत मोरारी बापू ने उठकर उन्हें गले लगा लिया था। तबले में ओज और तेज के प्रवर्तक पं. किशन महाराज का उस्ताद जाकिर हुसैन इतना मान करते रहे कि वे कभी उनके बराबर के आसन पर नहीं बैठे। 6 फीट का कद, गोरा रंग, तबले सी प्रशस्त और तालभरी आंखें उनके व्यक्तित्व को ग्रीक देवताओं की भांति प्रकट करती रहीं। सच तो यह है कि बगैर स्कूली शिक्षा के तबले के माध्यम से पूरी दुनिया में भारत का नाम गौरवान्वित करने वाले इस ऋषि ने जीवनभर संगीत को सिर्फ दिया ही दिया, लिया शायद कुछ नहीं। यहां तक कि इसी साल 3 मार्च को वे एक कार्यक्रम में तबला बजाने गए थे और वहां बेहोशी के बाद फिर कदाचित उन्होंने तबले का स्पर्श नहीं किया। यानी देहांत के कोई दो महीने पहले तक तबला उनके साथ था। आज भले किशन महाराज नहीं हैं, लेकिन जब भी तबले की बात चलेगी, उनके नाम के बगैर पूरी न हो सकेगी। कबीर का मशहूर दोहा है -
हरिरस पीया जाणिए, कबहूं न जाए खुमार, मेंमता घूमत रहत, नाही तन की सार।
बस कुछ ऐसा ही रहा है पं. किशन महाराज और तबले का साथ, उन्होंने ऐसा रस पिया जिसका खुमार कभी न लौटे।
डॉ. विवेक चौरसिया
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