Friday, November 13, 2009

ऐ वक्त न आया कर

जीवन में कुछ पल ऐसे होते हैं, जो जब भी उभरते हैं, अपरिमित कष्ट ही होता है। मन किसी भी कीमत पर नहीं चाहता है कि, गुजरा हुआ वह पल फिर से आँखों में आए। मगर यह सब रोकना अपने बस में होता ही कहाँ है। सामान्य व्यक्ति में इतना सामर्थ ही नहीं होता है कि, वह अपनी भावनाओं और संवेदनाओं पर अपना नियंत्रण कर सके। विचित्र तो यह होता है, जीवन में जिस वक्त को फिर से याद नहीं करना चाहतें हैं, उन्हीं पलों को फिर से जीने का मन भी करता है, इच्छा यही कहती है कि, काश! कि वह समय फिर से लौट आए और हम फिर से उन्हीं को जीए। लेकिन जब यह इच्छा नहीं पूरी होती है या पूरी नहीं हो सकती है, तब उन्हीं लम्हों को, जो कभी बहुत ही प्यारे थे, जो बहुत ही सुहाने थे, उनको याद नहीं करना चाहते हैं। वक्त या परिस्थिति जब उन्हें दोहराने का प्रयत्न करतीं हैं, तो उनको फिर से जीने का मन नहीं करता है। मन यही करता उन लम्हों में, जब बिन चाहे, बिता हुआ लम्हा आँखों में आ आ कर, जीने की इच्छा को तोड़ता है, जीवन की गति को धीमा बनाता है, कि गुजर जाय जो बीत गया है, लेकिन गुजरा हुआ वो वक्त गुजरता ही नहीं, जाने क्यों?

सही ही कहा गया है कि यादों के नियम ही अज़ीब हैं, कल में जिन लम्हों में रोए थे, वो आज में याद आकर हॅसाते हैं, लेकिन कल में जिन लम्हों में हॅसे थे, आज में वही वक्त आ आ कर रूलाया करते हैं। यादों का अज़ीब नियम यह किसने और क्यों बनाया है? भगवान् को क्या सूझा जो ऐसा काम किया है उसने?

कल रह रह कर जब उभरता है आज में आ कर, तब तब मन ने यही कहा है हमसे:-



मुझसे मिलने, ऐ वक्त न आया कर,
फिर से हॅसने, ऐ वक्त न आया कर।

कुछ पल अपने साथ गुजारने है मुझको,
कल को पलटने, ऐ वक्त न आया कर।

कुछ रखा जाए मान मोहब्बत का भी अब,
बात ये कहने, ऐ वक्त न आया कर।

बहुत हूँ तन्हा, लोगों में रह रह कर,
ये साबित करने, ऐ वक्त न आया कर।

मेरा वज़ूद बाकी ही है कितना अब,
हमसे यह सुनने, ऐ वक्त न आया कर।

‘‘उन्मत्त’’ छोड़ दूँ तुमको खुला कैसे,
मुझसे लड़ने, ऐ वक्त न आया कर।
‘‘उन्मत्त’’

No comments: