एक बार फिर हाजि़र हैं, नागेन्द्र अपनी पैनी निगाह और मामूली से अल्फाज के साथ, मामूली से लोगों की बेहाल जिंदगी बयान करने के लिए। ऐसी बेदर्दी, ऐसी हैवानियत... उफ्फ... संकट की घड़ी में ऐसा सुलूक... सच है, शर्म वाकई में मगर हमें/इनको नहीं आएगी। इन्हें आप किन अल्फाज़ से नवाज़ेंगे। इनके लिए आप किस सजा की तजवीज करेंगे। ये शब्दों से ऊपर हैं और सजा तो शायद इनके लिए है ही नहीं। हिन्दुस्तान, भागलपुर के स्थानीय सम्पादक नागेन्द्र (Nagendra) की यह रिपोर्ट। हिन्दुस्तान से शुक्रिया के साथ।
शर्म हमें शायद अब भी नहीं आएगी
बाढ़ग्रस्त इलाकों की चिकित्सा व्यवस्था में छेद ही छेद हैं
सुपौल और सहरसा से लौटकर नागेन्द्र
बिहार के बाढ़ग्रस्त इलाकों में सरकारी चिकित्सा इंतजामों की बार-बार ढँकी जा रही परत खोलने के लिए त्रिवेणीगंज की यह घटना पर्याप्त है। पिछले पाँच दिनों में वहाँ जो कुछ हुआ उससे आक्रांत लोग अब रेफरल अस्पताल छोड़ कर भागने लगे हैं। लिखते हुए भी शर्म आती है लेकिन यह सच बहुत क्रूर है।
एक गर्भवती महिला वहाँ लाई गई। हालत बिगड़ी। उसका बच्च गर्भ में ही मर चुका था। आधा बाहर आ चुका था। कई दिन इसी हाल में पड़ा रहा। मचहा गाँव की इस महिला का हाल देख रेफरल अस्पताल के डाक्टरों ने इसे सहरसा जने की सलाह दी। वहाँ कोई भर्ती करने को तैयार नहीं हुआ। उसे फिर त्रिवेणीगंज ले गए जहाँ वह रविवार तक इसी हाल में पड़ी थी। बदबू भी आने लगी तो डाक्टरों ने अपना आउटडोर खुले मैदान में लगा लिया लेकिन उसकी ओर नहीं देखा। ‘हिन्दुस्तान’ में खबर छपी तो सब सक्रिय हुए। उसे फिर सुपौल भेजा गया। अभी शाम को (सोमवार) खबर आई है कि चिकित्सा तंत्र की संवेदनहीनता का शिकार हुई यह महिला फिर सहरसा पहुँचा दी गई थी जहाँ उसने दम तोड़ दिया है।
बाढ़ग्रस्त इलाकों में चिकित्सा सुविधाओं पर आश्वस्त होने वाले सरकारी तंत्र के लिए यह एक सूचना ही शायद काफी होगी अपनी पीठ थपथपाने की परिपाटी पर शर्म करने के लिए।
बिहार में बाढ़ की विभीषिका के बीच की गई चिकित्सा व्यवस्थाओं का जमीनी सच तो यही है लेकिन पता नहीं वह कौन सा नामालूम तंत्र और पद्धति है जिसके जरिए मानीटरिंग करने वाले सरकारी लोग भी वहाँ से संतुष्ट होकर लौट रहे हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की उच्चस्तरीय टीम ने सहरसा के राहत शिविरों का निरीक्षण कर दवाओं की उपलब्धता और स्वच्छता पर संतोष व्यक्त किया है (यह खबर आज ही छपी है)। यह हतप्रभ करने वाला है।
दरअसल केन्द्रीय हो या राज्य की मानिटरिंग टीम, तरीका तो सब का सरकारी ही है। जिला मुख्यालय के सर्किट हाउसों में बैठकर या जीप से मुआयना करने से पूरा सच सामने नहीं आता। इसके लिए भीतर के उन स्थानों तक पहुँचने की जरूरत है जहां असल संकट है। रंगीन बत्ती लगी टाटा सफारी में बैठे एक बड़े अफसर जिस तरह सहरसा में शनिवार को मातहतों से रिपोर्ट ले रहे थे ‘व्यवस्थाओं पर संतुष्टि का यह सर्टिफिकेट’ शायद इसी पद्धति की देन है। उन्हें यह सच पता ही नहीं चल पाता (या शायद वे जनना नहीं चाहते) कि दूरदराज इलाकों से लोग अब भी अपने ही तरीके से, अपने संसाधनों से अपना इलाज कर रहे हैं।
सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया टाउन ही नहीं टेढ़े-मेढ़े, टूट कर किसी तरह बने रास्तों का लंबा सफर तय कर काफी अंदर बसे नरपतगंज (अररिया), त्रिवेणीगंज (सुपौल), भंगहा (पूर्णिया-मधेपुरा सीमा पर) और सिंहेश्वर (मधेपुरा) में चिकित्सा व्यवस्था का ऐसा ही नजारा दिखाई देता है। बाढ़ की विभीषिका से अंदर तक टूट चुके इन इलाकों में राजनीतिक दलों या उनसे जुड़े संगठनों के राहत शिविरों की तो भरमार है और चटखदार भोजन खिलाने की होड़ भी लेकिन एक भी शिविर ऐसा नहीं जहाँ दवा और डाक्टर का समुचित इंतजाम हो। चिकित्सा देने वाले ऐसे शिविर या तो गैर सरकारी संगठन चला रहे हैं या फिर सेना और अर्धसैनिक बल। सरकारी मेडिकल शिविर हैं लेकिन इनकी रफ्तार वही बेढंगी। संख्या भी काफी कम है।
त्रिवेणीगंज प्रखंड के भुतहीपुल की मुरलीगंज ५४ संख्या नहर पर एक छोटा-मोटा कस्बा बसा दिखाई देता है। इसे सेना और सीआईएसएफ की नेशनल डिजास्टर रेस्पांस फोर्स (एनडीआरएफ) ने बसाया है। वे लोगों को अब भी दूर-दराज से बचाकर ला रहे हैं, उन्हें भोजन करा रहे हैं, सुरक्षित शिविरों तक पहुँचा रहे हैं। इसी नहर पर उनका मेडिकल कैम्प भी है। सारी सुविधाओं के साथ। सेना का डाक्टर मरीजों को देखता है और जवान उन्हें दवा देते हैं। आधा मर्ज तो इन जवानों के प्यार से ही खत्म हो जता है।
इसी कैम्प के साथ एक और भी शिविर है। वहाँ अचानक डाँट-डपट की आवाज आती है। बचाकर लाए गए लोग हैं जो कुछ कहना चाहते हैं। उन्हें डपट दिया जता है। हम समङा जते हैं कि यह कोई ‘छोटे कद’ का ‘बड़ा’ सरकारी अफसर है। पता चला यह बिहार सरकार का शिविर है जो लोगों को सहायता देने के लिए लगाया गया है। चिकित्सा सहायता देने वाले शिविर यूँ भी कम हैं, लेकिन ऐसे में ऐसा व्यवहार लोगों की पीड़ा बढ़ा देता है।
एनडीआरएफ के सूबेदार टी गंगना कहते हैं, ‘हम तो मरीज देखते हैं। दवा तो सरकार को देनी है। वह बहुत कम है। न्यूट्रीशन के लिए तो कुछ है ही नहीं। नवजात के लिए भी कुछ नहीं। प्रापर न्यूट्रीशन न मिला तो जच्चा-बच्चा कैसे जियेगा।’ गंगना सूनामी के बाद थाइलैण्ड में भी काम कर चुके हैं। कई और देशों में भी। बोले ‘ऐसी सरकारी उपेक्षा कहीं नहीं देखी। अपने देश में भी ऐसा खराब अनुभव कहीं नहीं हुआ।’
हाँ, यूनीसेफ के लोग जहाँ-तहाँ दवाइयाँ और टेंट बाँटते दिखाई दे जाते हैं। उनके टेंट ऐसे हैं जिनमें सुरक्षित प्रसव की भी व्यवस्था है। वे बड़ा काम, पूरी खामोशी से कर रहे हैं।
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